Book Title: Chhahadhala
Author(s): Daulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
Publisher: B D Jain Sangh

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Page 177
________________ १७२ छहढाला पंचेन्द्रिय हो भी गया, तो उसमें भी सैनी होना अत्यन्त कठिन है। सैनी होकरके भी मनुष्य भवका पाना इस प्रकार कठिन है जिस प्रकार कि किसी चौराहे पर रत्नराशिकाका पाना* । ऐसा दुर्लभ मनुष्य भव पाकरके भी जीव मिथ्यात्वके वशीभूत होकर महान पापोंका उपार्जन किया करता है। इस मनुष्यभव में भी आर्यपना, उत्तम कुल गोत्रादिककी प्राप्ति, धनादि सम्पत्ति, इन्द्रियोंकी परिपूर्णता, शरीरमें नीरोगपना, दीर्घ-आयुष्कता, शीलपना आदिका मिलना उत्तरोत्तर अत्यन्त दुर्लभ है । यदि किसी प्रकार उपर्युक्त सब वस्तुएं प्राप्त भी हो गई, तो सद्धर्म की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है, यदि वह न प्राप्त हुआ तो समस्त वस्तुओंका पाना व्यर्थ है, जैसे सर्व अंग अत्यन्त सुन्दर पाकर भी नेत्र-हीनताके होनेसे मनुष्य जन्म व्यर्थ है। इसलिए हे भव्य जीवो ! ऐसे कठिन नर-भवको पाकर सम्यक्त्व, ज्ञान * रयणं चउप्पहे मिव मशुअत्त सुट्ठ दुल्लहं लहिय । मिच्छो हवेइ जीवो तस्थ वि पापं समज्जेदि ।।२६०॥ अह लहइ अज्जवंतं तह विण पावइ उत्तम गोत्तं । उत्तमकुल वि पत्त धणहीणो जायदे जीवो ॥२६१॥ अह धणमहिङ्गो होदि हु इंदियपरिपुण्णदा सदो दुलहा। अह इंदियसंपुण्णो तह वि सरोबो हवे देहो ।।२६२।। अह णीरोपो होदि हु सह वि ण पावेइ जीवियं सुइरं । अह चिरकालं जीवदि तो सीलं णेव पावेइ ॥२६३॥ स्वामिका०

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