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छहढाला
जन्म लेता है, केही बाल और युवा रहता है और अकेलाही जरासे जर्जरित वृद्ध होता है। अकेला ही रोगी शोकी होता है और अकेला ही यह मानसिक दुःखोंसे संतप्त रहता है । यह अकेला ही मरता है और अकेला ही नरक, तिर्यंच आदिक महान वेदनाओं को सहता है। बीमारी आदिके होने पर स्वजन, कुटुम्बी आदि खोंसे दुःखोंको देखते हुए भी लेशमात्र भी दुःखोंको बाँट नहीं सकते, ऐसा जानते देखते हुए भी आश्चर्य है कि जीव संसारके कुटुम्ब आदि से ममताको नहीं छोड़ता है * । और यह मेरा, यह मेरा करता हुआ रात दिन कुटुम्बके निमित्त पापका संचय किया करता है । पर जिन बन्धुजनों के लिए यह इतना पापउपार्जन करता है, वे अधिक से अधिक श्मशान तक साथ देते हैं और जिस धनके पीछे रात-दिन एक किया करता था, वह घर में ही पड़ा रहता है दो पग भी साथ नहीं चलता । देह यहीं भस्म होजाती है । हे आत्मन ! एक धर्म ही ऐसा है,
इक्को जीवो जायदि इक्को गन्भम्मि गिरहदे देहं । इक्को बाल जुवाणो इक्को बुट्टो जरागहि ||१४|| इको रोई सोई इक्को तपे माणसे दुक्ख । इक्को मरदि राम्रो ग्रयदुहं सहदि इक्को वि ।। ७५ ।।
स्वामिका०
* सुयो पिच्छंतो विहु ण दुक्खलेसं पि सकदे गहिदु । एवं जाणतो विहु तो वि ममतं ण छंडे
||७७||
स्वामि का०