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पांचवीं डाल
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भूत जो भाव होते हैं, उन्हें अध्यवसाय स्थान कहते हैं । वे प्रत्येक, ' असंख्यात लोकोंके जितने प्रदेश हैं, तत्प्रमाण होते हैं। इन समस्त अध्यवसाय स्थानोंके द्वारा मिथ्यात्वी जीवोंके संभव कर्मोंकी जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तकके बन्ध करनेको एक भाव परिवर्तन कहते हैं। इस प्रकारके अनन्त भाव परिवर्तन जीवने आज तक किये हैं। __ यह जीव इन पाँचों ही परिवर्तनों को सदा काल करता हुआ संसारमें परिभ्रमण करता रहता है और नाना प्रकारके दुःख उठाया करता है। इस प्रकार संसारका विचार करना सो संसारभावना है । इसके भावनेसे जीवको संसारसे वैराग्य हो जाता है, जिससे कि वह संसारसे छूटनेके लिये प्रयत्न करता है ।
अब आगे एकत्व भावनाका वर्णन करते हैं:शुभ अशुभ करम फल जेते, भोगे जिय एकहि तेते । सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथके हैं भीरी ॥ ६ ॥
अर्थ-शुभ और अशुभ कर्मका जितना भी फल प्राप्त होता है, उसे यह जीव अकेले ही भोगता है पुत्र आदि कोई भी भागीनहीं होता, ये सब स्वार्थके ही साथी हैं।
विशेषार्थ-यह जीव अकेला ही गर्भमें आता है और अकेला
" सव्वा पयडि टिदिश्रो अगुभागपदेसबंधठाणाणि । मिच्छत्तसंसिदेण य भमिदापुण भावसंसारे ।।२६।।
बारस-अगुवेक्खा