Book Title: Chhahadhala
Author(s): Daulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
Publisher: B D Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 160
________________ पांचवीं डाल १५५ भूत जो भाव होते हैं, उन्हें अध्यवसाय स्थान कहते हैं । वे प्रत्येक, ' असंख्यात लोकोंके जितने प्रदेश हैं, तत्प्रमाण होते हैं। इन समस्त अध्यवसाय स्थानोंके द्वारा मिथ्यात्वी जीवोंके संभव कर्मोंकी जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तकके बन्ध करनेको एक भाव परिवर्तन कहते हैं। इस प्रकारके अनन्त भाव परिवर्तन जीवने आज तक किये हैं। __ यह जीव इन पाँचों ही परिवर्तनों को सदा काल करता हुआ संसारमें परिभ्रमण करता रहता है और नाना प्रकारके दुःख उठाया करता है। इस प्रकार संसारका विचार करना सो संसारभावना है । इसके भावनेसे जीवको संसारसे वैराग्य हो जाता है, जिससे कि वह संसारसे छूटनेके लिये प्रयत्न करता है । अब आगे एकत्व भावनाका वर्णन करते हैं:शुभ अशुभ करम फल जेते, भोगे जिय एकहि तेते । सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथके हैं भीरी ॥ ६ ॥ अर्थ-शुभ और अशुभ कर्मका जितना भी फल प्राप्त होता है, उसे यह जीव अकेले ही भोगता है पुत्र आदि कोई भी भागीनहीं होता, ये सब स्वार्थके ही साथी हैं। विशेषार्थ-यह जीव अकेला ही गर्भमें आता है और अकेला " सव्वा पयडि टिदिश्रो अगुभागपदेसबंधठाणाणि । मिच्छत्तसंसिदेण य भमिदापुण भावसंसारे ।।२६।। बारस-अगुवेक्खा

Loading...

Page Navigation
1 ... 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206