Book Title: Chhahadhala
Author(s): Daulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
Publisher: B D Jain Sangh

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Page 118
________________ चौथी ढाल ११३ अनिन्हवाचार - जिस गुरुसे या जिस शास्त्रसे ज्ञान प्राप्त करें उसके नाम न छिपाने को अनिन्हवाचार कहते हैं 1 इन आठों अंगों को धारण कर उनका भलीभांति पालन करते हुए ही सम्यग्ज्ञान की आराधना करना चाहिए, तभी वह स्थिर रहता है और वास्तविक फलको देता है । चतुर्गति-परिभ्रमणका वर्णन पहली ढालमें कर आये हैं । यह जीव एकेन्द्रियपर्याय से निकलकर अधिक से अधिक दो हजार सागर तक त्रस पर्याय में रहता है । इतने समय के भीतर यदि वह संसार परिभ्रमणसे छूटकर सिद्ध होगया, तब तो ठीक है, अन्यथा फिर नियमसे एकेन्द्रियपर्याय में चला जाता है और वहां असंख्यात कालतक फिर जन्म-मरण करता हुआ पड़ा रहता है । पर्याय की जो दो हजार सागर की कायस्थिति बतलाई है, उस में से बहुभाग समय तो द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि क्षुद्र जीव-जन्तुओं की पर्यायोंके भीतर घूमने में ही चला जाता है, पंचेन्द्रियपर्यायके लिए बहुत कम समय बचता है । फिर उस अवशिष्ट समयमें भी नरकगति और पंचेन्द्रिय पशुगतिके भीतर परिभ्रमण करने में बहुभाग समय चला जाता है । अब अवशिष्ट जितना समय बचा, उसके भीतर वह मनुष्य और देवगति में जन्म लेता है । मनुष्य होकर भी बहुभाग पर्यायें तो नीच कुलमें उत्पन्न होने, रोगी, शोकी, हीनांग, विकलांग, गूँगे; बहरे आदि होनेके रूपमें ही निकल जाती हैं, उत्तम कुलमें जन्म लेना अत्यन्त कठिन बतलाया गया है । यदि भाग्यवश उत्तम कुलमें जन्म भी होगया

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