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चौथी ढाल
१११ देते हैं कि सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिके लिये जिन भगवान द्वारा उपदिष्ट सात तत्वोंका संशय, विभ्रम और मोह को त्यागकर अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि ये सात तत्व ही प्रयोजनभूत हैं, आत्माकी इष्ट सिद्धि के साधक हैं। संशय आदिका स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये-परस्पर-विरोधी अनेक कोटीके स्पर्श करने वाले ज्ञानको संशय कहते हैं। जैसे दूर पर पड़े हुये किसी चमकीले पदार्थ को देखकर सन्देह करना कि यह सीप है या चांदी। विपरीत एक कोटीके निश्चय करने वाले ज्ञान को विभ्रम कहते है। जैसे सीप को चाँदी समझ लेना । इसी का दूसरा नाम विपर्यय या विपरीत ज्ञान है। वस्तु सम्बन्धी यथार्थ ज्ञानके अभावको मोह या विमोह कहते हैं। जैसे मार्गमें चलते समय किसी वस्तुका स्पर्श होने पर उसका यथार्थ निर्णय न कर सोचना कि कुछ होगा, इसको अनध्यवसाय भी कहते हैं । ये तीनों मिथ्या ज्ञान कहलाते हैं क्योंकि, वे वस्तुके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान नहीं कराते सर्व साधारण लोगोंकी प्रवृत्ति प्रायः इन तीनों मिथ्या ज्ञानोंके अनुरूप पाई जाती है । इसीलिए ग्रन्थकार कहते हैं कि इन तीनों अज्ञानोंको दूर कर और यह निश्चय कर कि जिनोपदिष्ट तत्व ही सत्य हैं, उनका अभ्यास करके अपने आपको लखना चाहिए मैं कौन हूँ, मेरा क्या स्वरूप है और मुझे क्या प्राप्त करना है। ___ यहाँ पर एक बात खासतौर पर ध्यान रखने की है कि तत्व ज्ञानके साधक-शास्त्रोंका अभ्यास सम्यग्ज्ञानके आठ अंगोंके धारण करनेके साथही करना चाहिए, तभी स्थायी और यथार्थ