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छहढाला
चांदीमें रांगा मिला देना, धीमें तत्सम रंगवाला तेल मिला देना, इस प्रकार अधिक मूल्यकी वस्तुमें कम मूल्यकी समान वस्तुको मिलादेना सो सदृशसन्मित्र नामका अतिचार है ४। यथार्थ में सदृशसन्मिश्र करते हुए चोरीकी भावना पाई जाती है, अतः एक व्रतका भंग तो हो ही जाता है, पर करने वाला कहता है कि मैंने किसीके ऊपर डाका नहीं डाला है, या सेंध नहीं लगाई है, केवल व्यापार कला ही मैंने दिखाई है, इतने मात्रकी अपेक्षासे इसे अतिचार कहा है। पर वर्तमान कानूनके अनुसार यह महान अपराध है और वस्तुतः चोरी ही है । ४ । दुकान या घर आदि पर देनेके लिये नापने तौलनेके बांटोंको अधिक वजन या नापके रखना सो हीनाधिकविनिमान नामका अतिचार है ४। वर्तमान कानूनके अनुसार तो यह भी महान अपराध है और इसके करते हुए व्रतभङ्ग होता ही है, किन्तु करने वाला ऐसा मानता है कि मैंने तो केवल यह वणिकला दिखाई है, चोरी थोड़े ही की है। इस विषयको नीतिवाक्यामृतकारने बड़े सुन्दर शब्दोंमें कहा है कि “न वणिग्भ्यः सन्ति परे पश्यतोहराः" अर्थात् बनियोंसे अधिक और कोई चोर नहीं, वे चोर तो सोतेमें, पीठपीछे चोरी करते हैं, परन्तु ये बनिये तो आँखके सामने देखतेदेखते ही चोरी कर लेते हैं। इसी सूत्रकी टीकामें टीकाकर एक प्राचीन पद्यका उल्लेख करते हुये कहते हैं कि:
"नीतिवाक्यामृत, वार्तासमुद्देश. सूत्र १७ । । ।