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पांचवीं ढाल
१५१ औषधियोंसे उसकी रक्षा कर रहे हों, परन्तु यह आत्माराम तो सबके देखते-देखते ही उड़ जाता है। लोग समझते हैं कि शास्त्रों में बड़े बड़े मंत्र यंत्रादिक बतलाये गये हैं, वे भी क्या हमारी रक्षा न करगें ? आचार्य उन्हें उत्तर देते हैं कि हे भव्यात्मन् ! मंत्र आदि भी तेरे कोई स्वतंत्र शरण नहीं हैं। ये सब पुण्यके दास हैं, जब तक तेरे पुण्यका उदय बना हुआ है तब तक ही ये शरण से दिखते हैं, पर यथाथमें ये कोई भी स्वतंत्र शरण नहीं हैं, अन्यथा आज तक अगणित प्राणी अजर-अमर हुए दिखलाई देते * ।
ऐसा जान कर हे आत्मन् ! संसारमें तू किसी को भी शरण मत समझ और व्यर्थमें परको शरण मान आकुल व्याकुल मत हो । यथार्थमें तेरे दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही शरण हैं, सदाकाल रक्षा करनेवाले हैं, इसलिए परम श्रद्धा और भक्तिके साथ उन्हीं की सेवा और आराधना कर । इस प्रकारका चिन्तवन करने से
श्रायुधीयैरतिस्निग्बन्धुभिश्चाभिसंवृतः ।
जन्तुः संरक्ष्यमाणोऽपि पश्यत। मेच नश्यति ||३४||
मंत्रयंत्रादयोऽप्यात्मन्स्वतंत्रं शरणं न ते । किंतु सत्येव पुराये हि नो चेत्के नाम तैः स्थिताः ||३५||
क्षत्रचू० लं० ११.
दंसणगारण चरितं सरणं सेवेहि परम सद्धाए । किं पण सरणं संसारे संसरंताणं ||३०||
स्वामिका०