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छहढाला और मिश्र के भेद से तीन-तीन प्रकार के होते हैं। इनमें से राजा, देवता माता, पिता आदि लौकिक जीवशरण हैं। दुर्ग, गुप्त महल मणि आदि लौकिक अजीवशरण हैं। ग्राम-नगर आदि लौकिक मिश्रशरण हैं। पंचपरमेष्टी लोकोत्तर जीवशरण हैं । पंचपरमेष्टी प्रति-विम्ब मंत्र आदि लोकोत्तर अजीवशरण हैं। ज्ञान-संयमके साधन उपकरण युक्त साधुवर्ग, अध्यापक युक्त विद्यालय, आदि लोकोत्तर मिश्रशरण हैं। किन्तु जब जीवके जन्म, जरा, मृत्यु, ब्याधि, इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग अलाभ, दरिद्रता आदि कारणोंसे दुःख उपस्थित होता है, तब कोई भी शरण देनेवाला नहीं होता । समुद्रमें जहाजके डूब जानेपर उसपर बैठे हुए पक्षी का जैसे कोई भी शरण-सहायी नहीं है, इसी प्रकार विनाशकाल आनेपर हे जीव ! तेरा भी कोई शरण सहायी नहीं है । जब तक तेरे कुशलक्षेम है, तभी तक तुझे सभी शरण-सहायी से दिखते हैं।
जब जीवका मरण काल आता है तब उसे चारों ओर से घेर कर बड़े बड़े सैनिक शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित होकर क्यों न खड़े हो जायं, अत्यन्त स्नेह करने वाले बन्धुजन भी क्यों न घेरे हुए बैठे रहें, बड़े बड़े डाक्टर वैद्य, हकीम और लुकमान क्यों न अमोघ
तत्वार्थराजवार्तिक अ०६ सूत्र ७ वार्तिक २. पियौधौ नष्टनौ । स्य पतत्रेरिव जीव ते । सत्यपाये शरण्यं न तत्स्वास्थ्ये हि सहस्रधा ॥२३॥
क्षत्रचूड़ामणि लम्ब ११.
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