________________
छहढाला
__ अब अनित्य भावना का स्वरूप कहते है:
जोवन गृह गोधन नारी-हय गय जन श्राज्ञा-कारी । इन्द्रिय-भोग छिन थाई, सुरधनु चपला चपलाई ॥३॥ ___ अर्थ ---युवावस्था, घर, गाय-भैंस, धन, स्त्री, घोड़ा, हाथी,
आज्ञाकारी परिवार के लोग और नौकर-चाकर, तथा इन्द्रियों के भोग ये सब चीजें क्षण भर स्थिर रहने वाली हैं, सदा काल नहीं। जैसे कि इन्द्रधनुष और बिजलीका चमकना। __विशेषार्थ ऐसा चिन्तवन करना कि संसारमें जितनी वस्तुएं उत्पन्न हुई हैं, उनका नियमसे विनाश होगा क्योंकि पर्याय रूपसे कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है, सबका सदा परिवर्तन होता रहता है, फिर इन उत्पाद-व्यय-शील पयायोंमें मैं क्यों राग द्वेष करू ? देखो इस जगत् में जन्म तो मरणसे संबद्ध है, जवानी बुढ़ापासे लगी हुई है और लक्ष्मी विनाशसहित है, इस प्रकार सभी कुछ क्षण-भंगुर है। ये स्वजन-परिजन, पुत्र-मित्र, धन-गृहादि तथा स्पर्श आदि इन्द्रियोंके विषय, नौकर-चाकर, हाथी, घोड़े, रथ आदि समस्त वैभव इन्द्र-धनुष, नवमेघ और बिजलीके समान चंचल हैं, देखते-देखते ही नष्ट हो जाने वाले हैं। जैसे मार्गमें नाना दिग-देशान्तरोंके मुसाफिरोंका संयोग एक क्षण-भरके लिए किसी वृक्षके नीचे हो जाता है और फिर सब अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं, इसी प्रकार इस मनुष्य-भवरूपी वृक्षकी छांहमें मातापिता, भाई-बहिन आदि नाना बन्धु-जनोंका संयोग हो गया है,