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छहढाला क्षियोंके द्वारा अपने या अपनी बहू बेटियों पर, मन्दिरों पर, असहाय लोगों पर और धर्मायतनों पर किये गये आक्रमणोंको रोकनेके लिए, आत्मरक्षाके लिए अपना बचाव करते समय जो विपक्षियोंकी अपने द्वारा हिंसा होती है, गृहस्थ उसका भी त्यागी नहीं होता, क्योंकि गृहस्थ जीवनके निर्वाहके लिए तथा अपनी
और अपने धर्म, समाज, पड़ोसी, गाँव, देश आदिकी रक्षाके लिए उक्त हिंसा उसे विवशता-पूर्वक करनी पड़ती है। - २ सत्याणुव्रत-दूसरेके प्राणघातक, कठोर और निन्द्य वचन नहीं बोलना सो सत्याणुव्रत है । इस व्रतका धारी मोटी झूठ बोलनेका त्यागी होता है, इसलिए वह ऐसा कोई वचन नहीं बोलेगा न दूसरेसे बुलवायेगा जिससे कि किसी प्राणीका घात हो, धर्मका घात या अपमान हो, कोई समाज या देश बदनाम हो । यहाँ एक बात ध्यानमें रखनेकी है कि इस व्रतका धारी श्रावक सत्याणुव्रत की ओट में ऐसा सत्य भी नहीं कहेगा कि जिससे किसी प्राणी की हिंसा हो जाय, धर्म पर या देशसमाज पर कोई महान संकट या आपत्ति आ जाय।
३ अचौर्याणुव्रत-दूसरे की वस्तुको बिना दिये हुए ग्रहण नहीं करना अचौर्याणुव्रत है। इस व्रतका धारी श्रावक बिना
"स्थूलमलीकं न वदति न परान वादयति सत्याप विपदे। यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावादवैरमणम् ।।
रत्नकरंड श्रावकाचार