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छहढाला
यों श्रावक व्रत पाल स्वर्ग सोलह उपजावे, तहते चय नर जन्म पाय मुनि है शिव जावै ॥ १४ ॥
अर्थ - पहले कहे हुए अहिंसागुव्रत आदि प्रत्येक व्रत के पांचपांच अतिचार शास्त्रों में बतलाये गये हैं, उन्हें नहीं लगने देना चाहिए और मरण के समय संन्यास को धारण करके उसके भी दोषों (अतिचारों) को दूर करना चाहिए । इस प्रकार जो मनुष्य श्रावक के व्रतों को पालता है, वह मर कर सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकता है और वहां से चय करके मनुष्य जन्म पाकर और मुनि धर्म को धारण करके कर्मों का नाश करके मोक्ष को जाता है ।
विशेषार्थ - व्रतभंग न हो जाय, इस प्रकार की अपेक्षा या सावधानी रखते हुए भी विषयों की उद्दाम प्रवृत्ति या कषायों के आवेशसे व्रत के एक देश भंग हो जाने को अतिचार कहते हैं । श्रावक के ऊपर जो बारह व्रत बतलाये गये हैं, उनमें से प्रत्येक के ५-५ अत्तिचार कहे गये हैं । अब यहां पर क्रमसे उनका वर्णन करते हैं:
(१) हिंसा के अतिचार -- किसी जीवके हाथ पांव आदि और नाक, कान आदि उपांगों का काटना, उन्हें छेद
* एतैर्दोषैवनिर्मुक्तमन्त्यसल्लेखनाव्रतम् ।
स्वर्गापवर्गसौख्यानां सुधापानाय जायते || २४५॥
लाटी संहिता सर्ग ६