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छहढाला
ae हिंसाको त्याग वृथा थावर न संहार, पर-बधकार कठोर निंद्य नहिं वयन उचारे ॥६॥ जल - मृतिका विन और नाहिं कछु गहे अदत्ता, निज वनिता विन सकल नारिसों रहे विरता । अपनी शक्ति विचार परिग्रह थोरौ राखे, दशदिशि गमनप्रमाण ठान तसु सीम न नाखै ॥ १०॥ ताहूमें फिर ग्राम गली गृह बाग बजारा, गमनागमन प्रमाण ठान अन सकल निवारा। काहूकी धन हानि किसी जय हार न चिंतै, देय न सो उपदेश होय श्रघ वनिज कृपीतें ॥११॥ कर प्रमाद जल भूमि वृक्ष पावक न विराधै,
धनु हल हिंसोपकरण नहिं दे यश ला | राग द्वेष करतार कथा कबहूं न सुनीजे, और अनरथ दंड देत अघ तिन्हें न कीजे ॥ १२ ॥ धरि उर समता भाव सदा सामायिक करिये, पर्व चतुष्टय मांहि पाप तजि प्रोषध धरिये । भोग और उपभोग नियम करि ममतु निवारे, मुनिको भोजन देय फेरि निज करहि हारे ||१३॥