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छहटाला
सिद्धि नहीं करता, इसलिए मिथ्यादृष्टिका ज्ञान मिथ्याज्ञान ही कहलाता है, सम्यग्ज्ञान नहीं ।
शंका- यदि सम्यग्दर्शनके साथ ही सम्यग्ज्ञान होता हैं तो फिर उसकी भिन्न आराधना करने की क्या आवश्यकता है ?
समाधान- दोनोंके साथ साथ होने हर भी भिन्न भिन्न आराधना करने की आवश्यकता है, क्योंकि दोनों स्वतंत्र गुण हैं, सम्यग्दर्शनकी आराधनासे उसमें उत्तरोत्तर शुद्धि होगी और सम्यग्ज्ञानकी आराधनासे उत्तरोत्तर ज्ञानकी शुद्धि होगी तथा सम्यग्दर्शनकी निर्दोष परिपालना होगी । इसलिए, अमृतचन्द्राचार्यने 'ज्ञानाराधनमिष्ट सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात्' अर्थात् सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो जानेके पश्चात् सम्यग्ज्ञान की आराधना करनी चाहिए, शास्त्राभ्यास आदिके द्वारा उसे निरंतर बढ़ाते रहना चाहिए, ऐसा उपदेश दिया है।
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अब सम्यग्ज्ञानके भेदों का वर्णन करते हैं : तास भेद दो हैं परोक्ष परतछि तिनमांही, मति श्रत दोय परोक्ष अक्ष मनते उपजांही । अवधिज्ञान मनपजेय दो हैं देश-प्रतच्छा, द्रव्य क्षेत्र परिमाण लिए जानें जिय स्वच्छा ॥२॥ अर्थ—उस सम्यग्ज्ञानके दो भेद हैं- एक परोक्ष दूसरा प्रत्यक्ष । इनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो परोक्ष ज्ञान कहलाते हैं, क्योंकि, इंद्रिय और मनकी सहायता से उत्पन्न होते