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तीसरी ढाल पाशा, स्नेह, लोभ आदि किसी भी निमित्तसे नमस्कार, विनय श्रादि नहीं करता है। ___ यहां ग्रन्थकारने तीन मूढ़ताओंका वर्णन छन्दके चतुर्थ चरण में संक्षेप से कर दिया है। तीनों मूढ़ताओंका विस्तृत वर्णन पहले अमूढ़ दृष्टि अंगमें कर ही आये हैं । इस प्रकार सम्यग्दर्शन के २५ दोषों का वर्णन समाप्त हुआ।
अब सम्यग्दर्शनका माहात्म्य बतलाते हैं :दोषरहित गुणसहित सुधी जे सम्यकदरश सजे हैं, चरित-मोहवश लेश न सँजम पै सुरनाथ जजे हैं। गेही पै गृहमें न रचै ज्यों जलमें भिन्न कमल है, नगर-नारिको प्यार यथा कादेमें हेम अमल है ॥१५॥
अर्थ-जो बुद्धिमान पुरुष २५ दोषोंसे रहित और आठ अंगों से सहित सम्यग्दर्शन को धारण करते हैं, उनके चारित्र मोहनीय कर्मके उदयसे लेशमात्र भी संयम न हो, तो भी देवों का स्वामी इन्द्र उनकी पूजा करता है । इस प्रकार के अविरत-सम्यग्दृष्टि जीव गृहस्थ हैं, घरमें रहते हैं, तो भी उसमें लिप्त नहीं होते, अनासक्त होकर ही घर गृहस्थी का. सबकार्य करते हैं। जैसे कमल
"भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिंगिनाम् । .. प्रणामं विनयं चैव न कुयुः शुद्धदृष्टयः ॥३०॥ .
रत्नकरंड श्रावकाचार