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छहटाला
जिस जीवके मिथ्यादर्शन, अविरति, अमाद आदि बंधक कारण जितने अधिक होंगे, उतनी ही अधिक कर्म प्रकृतियों का उसके आस्रव और बन्ध होगा । मिथ्यादृष्टि जीवके मिथ्यादर्शन आदि पांचों ही बंधके कारण पाये जाते हैं, इसलिए उसके आठों कर्मोंकी बंध योग्य यथासंभव सभी (११७) प्रकृतियोंका आस्रव और बंध होता है । किन्तु जब जीव मिध्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि बन जाता है, तब व्रतादिक को नहीं धारण करने पर भी उसके केवल ७७ प्रकृतियोंका आस्रव और बंध रह जाता है । ? - मिथ्यात्व, २- हुंडकसंस्थान ३ - नपुंसक वेद, ४- नरकगति, ५-नरक गत्यानुपूर्वी, ६- नरक आयु, ७- असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन = - एकेन्द्रियजाति, ६- द्वीन्द्रिय-जाति, १०- त्रीन्द्रियजाति, ११ - चतुरिन्द्रिय, १२ - स्थावर - नामकर्म, १३ - आतप, १४ - सूक्ष्म, १५ - अपर्याप्त, १६ - साधारण, १७ - अनन्तानुबंधीक्रोध, १८- मान, १६ - माया, २० - लोभ, २१ - स्त्यानगृद्धि, २२ - निद्रानिद्रा, २३- प्रचलाप्रचला २४ - दुर्भग, २५- दुःस्वर, २६ - श्रनादेय, २७- न्यग्रोध संस्थान, २८ - स्वातिसंस्थान, २६ - कुब्जकसंस्थान, ३० - वामन संस्थान, ३१ - वज्रनाराचसंहनन, ३२ - नाराचसंहनन ३३- अर्द्ध नाराचसंहनन, ३४ - कीलितसंहनन, ३५ - अप्रशस्तविहायोगति, ३६ - स्त्रीवेद, ३७ - नीचगोत्र, ३८ - तिर्यग्गति, ३६ - तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, ४० - तिर्यगायु और ४१ - उद्योत, इन इकतालीस पाप प्रकृतियोंका उसके आस्रव और बंध रुक जाता है । अर्थात् व्रत रहित सम्यग्दर्शन होने मात्र से ही यह जीव नरकगति