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छहढाला
हृदयमें धारण करना चाहिए। अब आठ अंग और २५ दोषों के स्वरूप संक्षेपसे कथन करते हैं, क्योंकि, दोष और गुणोंको जाने विना कोई भी पुरुष दोषोंको तो कैसे छोड़ सकेगा और गुणोंको कैसे ग्रहण कर सकेगा ।
विशेषार्थ – अहंकार करनेको मद कहते हैं । मूर्खता और अज्ञानतापूर्ण कार्यको मूढ़ता कहते हैं । अधर्मके स्थानको अनायतन कहते हैं इनके भेदों का स्वरूप आगे ग्रन्थकार स्वयं कहेंगे। जिन भगवानके वचनोंमें उनके बतलाये तत्वोंमें या धर्म में शंका करना कि यह सच है, या झूठ, इसके पालन करनेसे मुक्ति मिलेगी या नहीं; इस प्रकार का संदेह करना शंका दोष है । धर्मको धारण करके उसके फलसे सांसारिक सुखों की इच्छा करना कांक्षा दोष है । धार्मिक जनोंके शरीरको, उनके मैले कुचैले वेष-भूषाको देखकर ग्लानि करना, किसी अपंग, लंगड़े-लूले को देखकर घृणा करना विचिकित्सा दोष है । सत्य-असत्वका निर्णय न करके यद्वा तद्वा विश्वास कर लेना मूढ़ता है। दूसरों के दोष और अपने गुण प्रकट करना अनुपगूहन दोष है । लौकिक लालसा वश होकर सत्य मार्ग से गिरते हुए लोगों को उसमें स्थिर नहीं करना या उनकी उपेक्षा करना अस्थितिकरण दोष है । गुणी और धर्मात्मा पुरुषोंको देखकर भी प्रमुदित नहीं होना, आनन्दित और उल्लासित नहीं होना अवात्सल्य दोष है । सामर्थ्यवान होकर भी सत्यमार्गकी संसारमें प्रभावना नहीं करना, अज्ञानके नाशके लिए प्रयत्न नहीं करना प्रभावना दोष