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तीसरी ढाल होनेसे मनुष्यमें नास्तिकपना नहीं रहता। इसी गुण के प्रभावसे सम्यग्दृष्टि सातों प्रकार के भयोंसे विमुक्त होकर निर्भय बन जाता है । उसे इस बात पर दृढ़ विश्वास हो जाता है कि मैं तो अजर अमर हूँ, न अस्त्र-शस्त्रोंसे मैं छिन्न-भिन्न किया जा सकता हूँ, न अग्निसे जलाया जा सकता हूँ और न अन्य किसी रोगादि से मेरा विनाश हो सकता है । जो पाप कर्म मैंने पूर्वभवमें नहीं किए हैं, तो उनका फल मुझे मिल नहीं सकता है और जो किये हैं तो उनका फल मिलनेसे छूट नहीं सकता। लिया हुआ कर्म रूपी कर्ज तो अवश्य ही चुकाना पड़ेगा। फिर कर्मों के फलको भोगनेसे भय क्यों ? इस प्रकारके विचार प्रगट हो जानेसे सम्यग्दृष्टि जीव बड़ेसे बड़ा उपद्रव, रोग, उपसर्ग और परिषह प्राजाने परभी निर्भय रहता है।
अब सम्यग्दर्शनके आठ अङ्गों को कहते हैंजिन-वचमें शका न धार वृष भव-सुख-वांछा भान, मुनि-तन देख मलिन न घिनावै तत्व कुतत्व पिछाने । निज-गुण अरु पर-ौगुन ढांक वा निज धर्म बढ़ावै, कामादिक कर वृषते चिगते निज-परको सु दिढ़ावै ॥१२ धर्मीसों गौवच्छ प्रीति सम कर निजधर्म दिपावै, इन गुणते विपरीत दोष वसु तिनकों सतत खिपावै ॥
अर्थ-जिन भगवान के वचनों में शंका नहीं करना निःशं. कित अङ्ग है । धर्म को धारण करके संसार के सुखों की इच्छा