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तीसरी ढाल श्राठों अंगों का पालन करना आवश्यक है । उनका विशेष स्वरूप इस प्रकार है।
१ निःशंकित अंग-स्व-पर विवेक-पूर्वक जब हेय और उपादेय तत्वोंका पूर्ण निश्चय हो जाता है, तब सन्मार्ग पर जो निश्चयात्मक दृढ़ प्रतीति या श्रद्धा होती है, उसे ही निःशंकित अंग कहते हैं । इस अंगके प्रभावसे सभ्यग्दृष्टि जीव १-इहलोकभय २-परलोक भय, ३-वेदनाभय, ४-अत्राणभय, ५ अगुप्तिभय, ६-मरणभय और ७-आकस्मिकभय, इनसात भयोंसे विमुक्त हो जाता है । इसलोक सम्बन्धी परिस्थितियोंसे घबड़ाने को इहलोकभय कहते हैं । मेरे इष्ट वस्तुका वियोग न होवे, अनिष्ट वस्तुका संगम न होवे, दैव कभी दरिद्र न बना देवे, इत्यादि प्रकारकी मानसिक चिन्ताओंसे जैसे मिथ्या दृष्टि जीव चिन्तित रहता है, उस प्रकार सम्यग्दृष्टि चिन्तित नहीं रहता, क्योंकि वह तो इस लोक-सम्बन्धी समस्त वस्तुओंको पर और विनश्वर जानता है, तथा अपने शुद्ध चिद्र पको स्व और अविनश्वर मानता है। परभव-सम्बन्धी पर्यायसे भयभीत होनेको परलोकभय कहते हैं । इस भयके कारण जीव सदा उद्विग्न रहता हुआ सोचा करता है कि न मालूम मैं मरकर किस गतिमें जाऊंगा ? मेरा
"लोकोऽयं मे हि चिल्लोको नूनं नित्योस्ति सोऽर्थतः । नापरो लौकिको लोकस्ततो भीतिः कुतोस्ति मे ॥३८॥ श्रात्मसंचेतनादेवं ज्ञानी ज्ञानेकतानतः । इहलोकभयान्मुक्तो मुक्तस्तत्कर्मबन्धनात् ॥३६॥