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छहढाला
न करना नि:कांक्षित अङ्ग है । मुनिके शरीरको मैला देख करके घृणा न करना निर्विचिकित्सा अङ्ग है । साँचे और झूठे तत्वोंकी पहिचान करना अमूढदृष्टि अङ्ग है । अपने गुणों को और पराये
गुणोंको ढकना और अपने धर्मको बढ़ाये रहना सो उपगूहन अङ्ग है । काम-विकार आदि कारणों से धर्म से डिगते हुये अपने आपको और दूसरे मनुष्योंको पुनः उसमें दृढ़ करना सो स्थिति - करण अङ्ग है । साधर्मी जनोंसे बछड़े पर गाय के समान प्रेम करना सो वात्सल्य अङ्ग है । जैन धर्म का संसारमें प्रकाश फैलाना सो प्रभावना अङ्ग है । इस प्रकार सम्यग्दर्शनके आठ अङ्गका संक्षेपमें वर्णन किया । इन गुणोंसे विपरीत आचरण करने पर शंका आदि आठ दोष उत्पन्न होते हैं, उन्हें सतत दूर करना चाहिए ।
आठ
विशेषार्थ - धर्मका मूल आधार सम्यग्दर्शन है और इस सम्यग्दर्शनका भी मूल आधार उसके आठ अंगों को बतलाया गया है । जिस प्रकार किसी मकानके सुन्दर आधारभूत खंभे होते हैं, अथवा शरीरके जैसे आठ अंग बतलाये गये हैं । उसी प्रकार सम्यग्दर्शनके भी आठ अंग बतलाये गए हैं । आचार्यांने आठों अंगों की समग्रता पर जोर देते हुए कहा है कि जिस प्रकार एक अक्षरसे भी हीन मंत्र विषकी वेदनाको दूर नहीं कर सकता उसी प्रकार एक भी अंगसे हीन सम्यग्दर्शन संसारका उच्छेद नहीं कर सकता ।" इसलिए सम्यग् ष्टको
* रत्नकरंड श्रावकाचार