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छहढाला
रोग, उपसर्ग आपत्ति आदि दूर होते हैं, इसलिए रोगादिके समय पुण्यास्रवके कारणों में न पड़कर कर्म-निर्जराके कारणों का अवरण करना लाभदायक है । देवपूजा आदि पुण्यास्त्रवके कारण हैं और उसका फल लौकिक-पारलौकिक अभ्युदय की प्राप्ति है । अतएव रोगादिके समय पूजा पाठ करना, अनिष्ट ग्रहोंकी शान्तिके लिए मंत्रजाप आदि कराना मूढ़ता ही है । सम्यग्दृष्टि को सर्वत्र अदृदृष्टि होना चाहिए।
५ उपगूहन अंग -दूसरोंके दोषों को और अपने गुणोंको प्रकटन करना तथा अपने धर्मको बढ़ाना उपगूहन अंग है ।
पुरुषार्थ सिद्धयुपाय और पंचाध्यायी आदि के रचयिता आचार्यांने इसे उपवृहण नामसे उल्लेख किया है । उपबृंहण नाम बढ़ाने का है अर्थात् अपनी आत्मशक्तियों को बढ़ाना, उत्तम क्षमा, मार्दव आदि भावोंके द्वारा आत्माके शुद्ध स्वभावको बढ़ाना तथा संघके दोषों का ढांकना उपबृंहण अंग है*
★ उप हणनामास्ति गुणः सम्यम्हगात्मनः लक्षणादात्मशक्तीनामवश्यं वृंहणादिह || ७७८ ॥
पंचाध्यायी श्र० २
धर्मोऽभवद्ध नयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया | परदोषनिगूहनमपि विधेयमुपवृ हणगुणार्थम् ॥ २७ ॥
पुरुषार्थ सि० उत्तम क्षमा दिभिरात्मनो वृद्धिकरण संघदोषाच्छादनं चोप ह मुपगूहनम् । षट्प्राभृते भावप्राभृत टीका
गाथा ७७ ।