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छहढाला
राग और पंच परमेष्टीमें भक्ति या प्रीतिको भी संवेग माना है । इस गुणके ही कारण सम्यग्दृष्टि जीवमें अनासक्ति भाव जागृत होता है और वह सांसारिक कार्योंमें उदासीन और पारमार्थिक कार्योंमें सोत्साह रहने लगता है । प्राणिमात्र पर मै भी भाव जागृत होने को अनुकम्पा कहते हैं * । इस गुणके प्रकट हो जाने सम्यग्दृष्टि जीवको दूसरों के दुःख अपने ही प्रतीत होने लगते हैं वह दूसरों के दुःख देखकर अनुकंपित हो उठता है, तिलमिला जाता है और उन्हें दूर करने का शक्तिभर प्रयत्न करता है । इसी गुण प्रगट होनेसे सम्यग्दृष्टिका कोई शत्रु नहीं रहता, सब मित्र बन जाते हैं और इसी कारण वह निःशल्य हो जाता है । इसी गुणके कारण सम्यग्दृष्टि जीव अन्याय और मांसादि अभक्ष्यसेवन से विमुख हो जाता है ।
इहलोक, परलोक, पुण्य, पाप और जीवादि तत्वोंके सद्भावमें अस्तित्व बुद्धिका होना सो आस्तिक्य है। इस गुणके प्रगट
*संवेगः परमोत्साहो, धर्मे धर्मफले चितः ।
धर्मेवनुराग वा प्रीतिर्वा परमेष्ठि
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लाटी संहिता सर्ग ३.
* सर्वप्राणिषु मैत्री अनुकम्पा । सर्वार्थसिद्धि ० १ सूत्र २ नुकम्पा कृपा ज्ञेया सर्वसत्वेष्वनुग्रहः ।
मैत्रभावोऽथ माध्यस्थ्यं निःशल्यं वैरवर्जनात् ॥८६॥ लाटी सँहिता सर्ग ३. जीवोदयोऽर्था यथास्वं भावैः सन्तीति मतिरास्तिक्यम् । सर्वार्थसिद्धि ० १ सूत्र २०