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तीसरी ढाल
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है । सम्यग्दर्शनके धारकोंका परम कर्त्तव्य है, कि वे इन आठों दोषोंको दूर करें ।
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सम्यग्दर्शन में निर्मलता बढ़ाने के लिए प्रशम संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य इन चार गुणों को और भी धारण करना चाहिए । रागद्वेष आदिकी अत्यन्त कमी को प्रशम कहते हैं यदि किसी बड़ा भी अपराध कर दिया है, तो भी उससे बदला ले लेने का भाव नहीं होना, प्रशम गुण हैं * इस गुण के प्रभाव से आत्मा में परम शान्ति जागृति होती है । यद्यपि सम्यग्यदृष्टि जीव को भी आरम्भादिके निमित्त से कभी कदाचित् उत्तेजना या कषायोद्र के हो जाता है, तथापि वह अल्पकालस्थायी होता है उसमें कषायों की तीव्र वासना नहीं होती है, इसलिए उसके प्रशम गुणका विनाश नहीं होता है ।
संसारसे भयभीत रहना, उसमें आसक्त नहीं होना सो संवेग कहलाता है" । किसी आचार्यने धर्म और धर्म के फल में परम उत्साह रखने को भी संवेग कहा है, साधर्मी जनों में अनु
* रागादीनामनुद्र ेकः प्रशमः । सर्वार्थसिद्धि. श्र. १ सू० २ * प्रशमो विषये च भवक्रोधादिकेषु च । लोकसंख्यातमात्रेषु स्वरूपाच्छिथिलं मनः ॥ ७१ ॥
सद्यः कृतापराधेषु यद्वा जीवेषु जातुजित् । धादिविकाराय न बुद्धिः प्रशमो मतः ॥७२॥
लाटी संहिता सर्ग: ३.
"संसाराद् भीरता सवेगः । सर्वार्थसिद्धि ० १ सूत्र २.