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तीसरी ढाल और पूर्णताके लिए आगे कहे जाने वाले आठ अंगोंका धारण करना आवश्यक है। __सम्यग्दर्शनको धारण करनेके साथ ही उसे निर्दोष पालन करना चाहिए। जिन दोषोंके कारण सम्यग्दर्शनमें निर्मलता नहीं
आती है, वे दोष २५ होते हैं । ग्रन्थकार अब उनका वर्णन करते हैं:वसु मद टारि निवारि त्रिशठता षट अनायतन त्यागो, शंकादिक वसु दोष चिना संवेगादिक चित पागो । अष्ट अंग अरु दोष पचीसों अब संक्षेपै कहिए, विन जाने ते दोष गुनन को कैसे तजिए गहिए ॥११॥
अर्थ-सम्यग्दर्शनकी निर्मलताके लिए कुलमद, जातिमद, रूपमद, ज्ञानमद, धनमद, बलमद, तपमद और प्रभुतामद, इन आठ मदोंको नहीं करना चाहिए । देवमृढ़ता, गुरुमूढ़ता और लोकमूढ़ता इन तीनों मूढ़ताओंको दूर करना चाहिए। कुगुरु, कुदेव, और कुधर्म इन तीनोंके सेवक, इन छहोंको अनायतन अर्थात् अधर्मके स्थान कहते हैं। सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिके लिए इनका भी त्याग आवश्यक है । उक्त छह अनायतनों की प्रशंसास्तुति वगैरह नहीं करना चाहिए। आगे कहे जाने वाले आठ अंगोंके विपरीत आचरणसे शंका आदि आठ दोष उत्पन्न होते हैं, उनका भी त्याग करना चाहिए । इस प्रकार २५ दोषोंका त्याग कर प्रशम, संवेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य इन गुणोंको