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तीसरी ढाल हितैषी हैं, इनके बतलाये मार्ग पर चलने पर ही हमारा हित है। अन्य कुदेवादि हमारे हितैषी नहीं हो सकते, क्योंकि वे सरागी हैं, राग, द्वेष, मोह, मद, छल, प्रपंच और ईर्ष्यासे परिपूर्ण हैं । और इसीलिए इन कुगुरु, कुदेवादिके कहे वचन भी माननेके योग्य नहीं हैं, जो स्वयं असन्मार्ग पर चल रहे हैं, वे कैसे औरके उद्धारक और समुत्तारक हो सकते हैं ? ऐसा जानकर कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र और कुकार्यका सेवन छोड़कर सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और धर्मका विश्वास करना चाहिए
और शक्तिके अनुसार उनके बतलाये मार्ग पर चलना चाहिए । तथा आगे कहे जाने वाले आठ अंगों को अवश्य धारण करना चाहिए तभी जाकर व्यवहार सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होगी । जब जीवके इस व्यवहार सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है तो निश्चय सम्यग्दर्शन की योग्यता उसमें सहज ही उत्पन्न हो जाती है, फिर उसके लिए पृथक परिश्रम नहीं करना पड़ता । __जिस प्रकार एक सम्यग्दर्शनके प्रकट होतेही ऊपर बतलायी गई ४१ कर्म-प्रकृतियोंसे छुटकारा मिल जाता है, उसी प्रकार अविरति प्रमाद आदि दूर होते ही अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, अस्थिर, अशुभ, असातावेदनीय, अयशस्कीर्ति, अरति, शोक, इत्यादि प्रकृतियोंका भी बंध छूट जाता है । कहने का तात्पर्य यह कि ज्यों-ज्यों कम-बंधके कारण दूर होते हैं, त्यों-त्यों आत्मा कर्म-प्रकृतियोंके बंधनोंसे छूटता जाता है । इस प्रकार आगे