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तोसरी ढाल
मन वचन और काय इन तीनों योगों की हलन-चलनरूप क्रियाके द्वारा जो कर्मोंका आना होता है, इस आस्रवके ५ भेद हैं-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । ये पांचों ही कर्मों के कारण होनेसे आत्माके दुःखके कारण हैं, इसलिए इन्हें छोड़देना चाहिए । जीवके प्रदेशोंको कर्म-परमाणुओं से बंधनेको बंध कहते हैं, सो यह बंध भी नहीं करना चाहिए । शम अर्थात् कषायोंके शान्त करनेसे और दम अर्थात् इन्द्रियविषयों के जीतनेसे कर्मोंका आना रुकता है यही संवर कहलाता है, इसका सदा आदर करना चाहिए अर्थात् इसे धारण करना चाहिए। तपो बलसे जो कर्म झड़ते हैं, उसे निर्जरा कहते हैं, उसका सदा आचरण करना चाहिए। समस्त कर्मोंसे रहित्त जो आत्माकी शुद्ध दशा प्रकट होती है, उसे मोक्ष कहते हैं, वह स्थिर और अविनाशी सुखको करने वली है। इस प्रकार सातों तत्वोंके यथार्थ श्रद्धानको व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं। वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी जिनभगवान ही सच्चे देव हैं, परिग्रहप्रारंभसे रहित, ज्ञान ध्यानमें परायण पुरुष ही सच्चे गुरु हैं और दयामयी धर्म ही सच्चा धर्म है । इन तीनों को भी सम्यग्दर्शनका कारण जानना चाहिए और आगे कहे जाने वाले आठ अंगोंके साथ इस सम्यग्दर्शनको धारण करना चाहिए ।
विशेषार्थ-कर्मोंके आनेका मूल कारण यद्यपि तीनों योगों की चंचलता है। योगोंकी चंचलता जिस परिमाण में अधिक होगी उसी परिमाणमें कर्मोंका आस्रव अधिक होगा तथापि