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तीसरी ढाल
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विवक्षितैकदेशशुद्धनयेन सिद्धसदृशः परमात्मा, सिद्धस्तु साक्षात् परमात्मेति । बृहद्द्रव्यसंग्रहटीका, गाथा १४ ।
अब आगे ग्रन्थकार अजीव तत्वका वर्णन करते हैं:
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चेतनता विन सो श्रजीव है, पंच भेद ताके हैं, पुद्गल पंच वरण रस गंध दो फरस वसू जाके हैं । जिय पुद्गल को चलन सहाई धर्मद्रव्य अनरूपी तिष्ठत होय धर्म सहाई जिन विनमृतिं निरूपी ॥७॥ सकल द्रव्यको वास जास में सो आकाश पिछानो, नियत वर्तना निशिदिन सो व्यवहारकाल परिमानो ।
अर्थ- जिसमें चेतना नहीं पाई जाती है, उसे अजीव कहते हैं। उसके पांच भेद हैं- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । जिसमें पांच प्रकारका रूप, पांच प्रकार का रस दो प्रकारकी गंध और आठ प्रकारका स्पर्श ये बीस गुण पाये जाते हैं, उसे पुद्गल कहते हैं । जो जीव और पुद्गलोंके चलने में सहायक है, उसे धर्मद्रव्य कहते हैं, यह अमूर्त्तिक माना गया है । जो जीव और पुद्गलोंके ठहरनेमें सहायक है उसे अधर्मद्रव्य कहते हैं। इसे भी जिन भगवान्ने श्रमूर्तिक कहा है । जिसमें समस्त द्रव्योंका निवास है, उसे आकाश जानना चाहिए । जो स्वयं परिवर्तित होता है और अन्य परिवर्तन करते हुए द्रव्योंके परिवर्तनमें सहायक होता है, उसे
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