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तीसरी ढाल छहढालाकारने उत्तम अन्तरात्माका जो लक्षण छंद-निबद्ध किया है उसमें भी स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है । यथापंचपव्ययजुत्ता धम्मे सुक्के वि संठा णिच्च । णिज्जिय सयलपमा उक्किट्ठा अंतग होति ॥ १६॥
अर्थात जो पंच महाव्रतोंसे युक्त हैं नित्य धर्म यान और शुक्ल ध्यानमें विद्यमान हैं और सकल प्रमादोंके जीतने वाले हैं, वे उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं। - उक्त गाथाके प्रकाशमें जब हम पं० दौलतरामजी द्वारा निबद्ध उत्तम अन्तरात्माका लक्षण देखते हैं, तो इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता कि उत्तम अन्तरात्माके स्वरूपको भी उक्त गाथाके आधार पर ही लिखा गया है । 'द्विविधसंग बिन शुध उपयोगी मुनि उत्तम निजध्यानी' इसमें 'द्विविध संग विन' यह पद 'पंचमहब्बय जुत्ता' के, 'शुध उपयोगी' यह पद 'धम्मे सुक्केवि संठिया णिच्च' के और निजध्यानी' पद 'णिज्जियसयलपमाया' के आभारी हैं। इस विवेचनसे यह सारांश निकलता है कि सातवें गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तकके साधु तो उत्तम अन्तरात्माकी श्रेणीमें आते हैं और पांचवे गुणस्थानवर्ती श्रावक, तथा छठे प्रमत्तवरत गुणस्थान वाले मध्यम अन्तरात्मा हैं। इस दृष्टिसे 'देशव्रती अनगारी पद' की सार्थकता सिद्ध होती है। इस प्रकार आगमकी परम्पराको देखते हुए दोनों पाठ उचित प्रतीत होते हैं।