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छहढाला
- अब सबसे पहले ग्रन्थकार क्रम प्राप्त अगृहीत मिथ्यादशन का वर्णन करते हैं :जीवादि प्रयोजनभूत तत्व, सरधै तिनमाहिं विपर्ययत्व । चेतनको है उपयोग रूप, विनमूरत चिन्मूरत अनूप ॥२॥ पुद्गल नम धर्म अधर्म काल, इनसे न्यारी है जीव चाल। ताकों न जान विपरीत मान, करि करै देहमें निज पिछान ॥३ मैं सुखी दुखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव । मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बरूप सुभग मूरख प्रवीन ॥४॥ । अर्थ-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व आत्माके लिए प्रयोजनभूत हैं अर्थात् इनका . जानना अत्यन्त आवश्यक है बिना इनको जाने किसीको भी अपने स्वरूपका भान नहीं हो सकता कि मैं कौन हूँ, कहांसे आया हूँ और कहां जाना है। मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादर्शनके प्रभावसे इन सातों तत्वोंके स्वरूपका विपरीत श्रद्धान करता है । जैसे-आत्माका स्वरूप उपयोगमयी है, अमूर्त है, चिन्मूर्ति है
और अनूप है । पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये जो पांच अजीव तत्वके भेद हैं उनसे जीवका स्वभाव न्यारा है, बिलकुल भिन्न है, इस यथार्थ बातको न समझकर और विपरीत मानकर शरीरमें आत्माकी पहचान करता है, आत्मा
और उसी मिथ्यादर्शनकै प्रभाव से कहता है कि मैं