________________
दूसरी ढाल
४५
प्रधान कारण ज्ञान और वैराग्यको दुःखदायक मानना ही संवर तत्वका विपरीत श्रद्धान है ।
मिध्यादृष्टि जीव अपनी आत्म-शक्तिको खोकर नष्टकर या भूलकर, दिन रात विषयों में दौड़ने वाली इच्छा-शक्तिको, नाना प्रकार की अभिलाषाओं को नहीं रोकता है, यह निर्जरा तत्वका विपरीत श्रद्धान है; क्योंकि इच्छाओंके रोकनेको तप कहते हैं और तपसे निर्जरा होती है । परन्तु मिथ्यादृष्टि जीव अनादि काल से लगे हुए मिथ्यात्वके प्रभाव से अपनी अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन आदि आत्मिक शक्तिको भूल जाता है उसे अपने आत्मिक अनन्त सुखका भान नहीं रहता है, और वह परपदार्थों में ही आनन्द मानकर रात-दिन उनकी प्राप्तिके लिए व्यग्र रहता है, तृष्णातुर हो हाय-हाय किया करता है, यह निर्जरातत्व के यथार्थ स्वरूपको न समझने का ही फल है ।
मोक्षको निराकुलता रूप माना गया है, क्योंकि, निराकुलता ही परम आनन्द है, किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव इस सर्वोत्कृष्ट पदकी प्राप्ति के लिये भी प्रयत्न नहीं करता है, जोकि आत्माका असली स्वरूप है । वह मिध्यात्व के कारण इस मोक्षरूप निज• स्वरूपको भी 'पर' मानता है और यही मोक्षतत्वका विपरीत श्रद्धा है ।
उक्त प्रकारसे मिथ्यादृष्टि जीव सातों तत्त्वोंका विपरीत श्रद्धान करता है । इस प्रकारके अयथार्थ श्रद्धानको गृहीत मिथ्यादर्शन कहा गया है; क्योंकि यह श्रद्धान इस भवमें