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छहढाला ___ जो राग-द्वषादि स्पष्ट रूपसे जीवको दुःखके देने गले हैं, उनको ही सेवन करता हुआ यह जीव आनन्दका अनुभव करता है, यह आस्रव तत्वका विपरीत श्रद्धान है, क्योंकि, जो वस्तु यथार्थ में दुःखदायक है, उसे वैसा ही समझना उसका यथार्थ श्रद्धान कहलाता है, पर यहां कर्मास्रव के प्रधान और दुःखदायक कारण राग-द्वषको सुखका साधन समझकर अपनाया गया है, यही आस्रव तत्वका विपरीत श्रद्धान है।
मिथ्यादृष्टि जीव अपने आपके शुद्ध स्वरूपको भूलकर शुभ कर्मों के बंधके फलकी प्राप्तिमें तो हर्ष मानता है और अशुभ कर्मोंके बंधकी फल-प्राप्तिके समय दुःख मानता है, अरति करता है, यह बंध तत्त्वका विपरीत श्रद्धान है, क्योंकि, जो बंध आत्मा को संसार समुद्रमें डुबोने वाला है, उसी शुभ-बंध के फलमें यह हर्ष मानता है। __इसी प्रकार आत्माके हितके कारण जो वैराग्य और ज्ञान . हैं, उन्हें यह मिथ्यादृष्टि जीव अपने आपको कष्टदायक मानता है । यह संवर तत्त्वका विपरीत श्रद्धान है, क्योंकि संवर अर्थात् कर्मोंके आनेको रोकनेके प्रधान कारण वैराग्य और ज्ञान ही हैं। यहां वैराग्यसे अभिप्राय सम्यकचारित्रसे और ज्ञानसे अभिप्राय सम्यग्ज्ञानसे है । ज्ञान और वैराग्यके संयोगसे आत्मामें एक ऐसी दिव्य शक्ति जागृत हो जाती है, जिसके कारण कर्मोका आना स्वयं रुक जाता है। इस प्रकार संवरके