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दूसरी ढाल कषायोंमें अत्यन्त आसक्ति लिए हुये प्रवृत्ति पाई जाती है, यहां तक कि एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय जीवों तकमें विषय-कषायकी प्रवृत्ति स्पष्टरूपसे देखनेमें आती है। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह, इन चारों संज्ञाओंकी प्रवृत्ति एकेन्द्रियोंसे लेकर पंचेन्द्रियों तक निराबाधरूपसे पाई जाती है। मिथ्यादृष्टि जीवोंकी इस अनादिकालिक प्रवृत्तियोंको ही यहां अगृहीत मिथ्याचारित्र कहा गया है, क्योंकि इन्द्रिय-कषायरूप प्रवृत्तिको किसीभी जीवने इस जन्ममें नवीन ग्रहण नहीं किया है, किन्तु सनातनसे ही वैसी प्रवृत्ति पाई जाती है। ___इस प्रकार यहां तक निसर्गज या अगृहीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रका वर्णन किया गया। अब
आगे गृहीत मिथ्यादर्शन, गृहीत मिथ्याज्ञान और गृहीत मिथ्याचारित्रका वर्णन किया जाता है। उनमें सबसे प्रथम गृहीत मिथ्यादर्शनका स्वरूप कहते हैं :जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव, पोषै चिर दर्शन एव । अन्तर रागादिक धरै जेह, बाहर धन अम्बरतें सनेह ।।। धारै कुलिंग लहि महत भाव, ते कुगुरु जन्मजल उपलनाव । जे राग-द्वेष मलकरि मलीन,बनितागदादि जुत चिह्न चीन॥१० ते हैं कुदेव तिनकी जुसेव,शठ करत न तिन भव-भ्रमण छेव । रागादि भाव हिंसा समेत, दर्वित प्रस-थावर मरण खेत ॥११