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छहढाला उसने किसी गुरू आदिकसे बुद्धि-पूर्वक नहीं ग्रहण किया है किन्तु अनादि कालसे ही लगा हुआ चला आ रहा है, इसी कारण इसका दूसरा नाम निसर्गज मिथ्यात्व भी है ।
सातों तत्वोंकी विपरीत श्रद्धाके साथ साथ जीवके जो कुछ ज्ञान होता है, वह 'अगृहीत मिथ्याज्ञान' कहलाता है, क्योंकि यह मिथ्याज्ञान भी इस जन्नमें किसी गुरू आदिसे ग्रहण नहीं किया गया है, किन्तु अनादि कालसे ही जीवके साथ चला आ रहा है। इस मिथ्याज्ञानको अति दुःखका देने वाला जानना चाहिए वास्तव में यह ज्ञान नहीं, किन्तु अज्ञान ही है।
अब आगे ग्रन्थकार अगृहीत मिथ्याचारित्रका स्वरूप वर्णन कर गृहीत मिथ्यादर्शनादिके वर्णन की प्रतिज्ञा करते हैं :इन जुत विषयनिमें जो प्रवृत्त, ताको जानो मिथ्याचरित्त । यों मिथ्यात्वादि निसर्गजेह, अब जे गृहीत, सुनिये सुतेह ॥८ ___ अर्थ-अगृहीत मिथ्यादर्शन और अगृहीत मिथ्याज्ञानके साथ पांचों इन्द्रियोंके विषयोंमें जो अनादिकाल से प्रवृत्ति चली आरही है, उसे अगृहीत मिथ्याचारित्र जानना चाहिए। इस प्रकार अगृहीत मिथ्यादर्शनादिका वर्णन किया। अब आगे गृहीत मिथ्यादर्शनादि का वर्णन किया जाता है, सो उसे हे भब्यजीवो! सावधानीपूर्वक सुनिये ।
विशेषार्थ-विषय-कषायरूप जितनी प्रवृत्ति है, वह सब मिथ्याचारित्र है। संसारी जीवकी अनादिकालसे ही इन विषय