________________
दूसरी ढाल
४६
आ सकता है, क्योंकि जो स्वयं संसार-समुद्र में चक्कर लगा रहे हैं, वे दूसरों को कैसे पार उतार सकते हैं ? अब आगे कुधर्मका स्वरूप कहते हैं :
जो क्रियाएं राग-द्वेष आदि भाव हिंसासे युक्त हैं, जिनके करनेमें त्रस-स्थावर जीवोंकी द्रव्यहिंसा होती है, उन क्रियाओंको कुधर्मं जानना चाहिए; क्योंकि द्रव्य-भाव हिंसासे व्याप्त कुधर्मका श्रद्धान करनेसे जीव दुःखोंको ही पाता है ।
इस प्रकार उक्त कुगुरु, कुदेव और कुधर्मकी सेवा करनेको गृहीत मिथ्यादर्शन जानना चाहिए, क्योंकि यह मिथ्यात्व इसी जन्ममें ग्रहण किया गया है ।
विशेषार्थ - कुधर्मके स्वरूप में द्रव्य-भाव हिंसाका नाम आया है, उसका विशेष खुलासा इस प्रकार है :- प्रमत्त योगसे प्राणोंके घातको हिंसा कहते हैं। यह हिंसा दो प्रकारकी होती हैद्रव्यहिंसा और भावहिंसा । किसी प्राणीको मारनेका जो भाव मनमें जागृत होता है, उसे भावहिंसा कहते हैं। पर प्राणीका घात चाहे हो, या चाहे न हो, पर ज्यों ही हमारे भाव रागद्वेषादिसे कलुषित होकर दूसरे को मारनेके होते हैं, वैसे ही हम भाव हिंसाके भागी बन जाते हैं । स्वपर प्राणीके द्रव्य शरीरके घात को द्रव्यहिंसा कहते हैं । अन्य मतावलम्बियों द्वारा धर्म - कार्यरूप से प्रतिपादित यज्ञ वगैरह में प्रचुर परिमाणमें द्रव्य और भाव हिंसा होती है इसलिए इन यज्ञादिकोंका करना कुधर्म बतलाया गया है । सच्चा धर्म तो वह है । जिसके करने पर किसी