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दूसरी ढाल
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शरीरमें भस्म लगाना, आदि असदाचरणको मिथ्याचारित्र कहते हैं। इन तीनोंके वशीभूत होकर यह जीव पर - पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि धारणकर रागी द्वेषी बन सुख-दुःखका अनुभव किया करता है, पर पदार्थोंको अपनी इच्छानुसार 'परिणमता हुआ न देखकर आकुल व्याकुल होता है, रात-दिन उनके पानेके प्रयत्नोंमें ही लगा रहता है, अन्त समय में हाय-हाय करता हुआ मरण करता है और दुर्गतियोंमें जन्म धारणकर अनेकों कष्टोंको सहन किया करता है । ग्रन्थकार जीवोंको इस संसार-परिभ्रमणसे छुड़ानेके लिए उसका निदान बतलाकर मंक्षेपसे उसके स्वरूपका व्याख्यान करते हैं ।
मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र, इन तीनोंके समुदायको सामान्यतः मिध्यात्वके नामसे पुकारते हैं । यह मिथ्यात्व दो प्रकारका है - - गृहीत मिथ्यात्व और गृहीत मिथ्यात्व । अगृहीत मिध्यात्वका दूसरा नाम निसर्गज मिथ्यात्व भी है । जो मिथ्यात्व अनादि काल से जीवके साथ चला आ रहा है, उसे गृहीत या निसर्गज मिश्यात्व कहते हैं । जो मिथ्यात्व इस भव में जीवके द्वारा ग्रहण किया जाता है, उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं । इन दोनों ही प्रकारके मिध्यात्वों में तीन-तीन भेद हैं- गृहीत मिथ्यादर्शन, अगृहीत मिथ्याज्ञान, अगृहीत मिथ्याचारित्र; तथा गृहीत मिथ्यादर्शन, गृहीत मिथ्याज्ञान, और गृहीत मिथ्याचारित्र । इस दूसरी ढालमें ग्रन्थकार उक्त दोनों प्रकारके मिथ्यात्वोंका क्रमशः वर्णन करेंगे ।