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प्रथम ढाल
१६ पदार्थ उसके शरीर पर डाल देते हैं, जिससे पीड़ित हो वह छटपटाने लगता है, हाय, हाय, विलाप करता है और मूच्छित होकर गिर जाता है । ऐसे ही दुःख के समय अब अम्बरीष आदि नीच जातिके असुर देव आकर पुराने नारकियोंको संबोधित करते हुए पूर्वभवकी याद दिलाते हैं और उन्हें पुनः आपस में लड़ाने के लिए उकसाते हैं ।
उन नरकों में शीत की वेदना इतनी अधिक है कि यदि मेरु पर्वतके समान लाख योजनका विशाल लोहेका गोला डाला जाय, तो वह जमीन तक पहुँचने के पूर्व ही अधर प्रदेशमें नमक की डलीके समान गलकर बिखर जायगा । इसी प्रकार उष्ण नरकों में इतनी अधिक उष्णता है कि मेरु-समान लोहेका गोला तल- प्रदेश तक पहुँचने के पूर्व ही मोम के खंडके समान पिघलकर
-पानी हो जायगा । यह वर्णन त्रिलोक प्रज्ञप्ति के अनुसार है और छहढालाकारने 'गलि जाय' इस एक पदके द्वारा दोनों काही वर्णन कर दिया है; क्योंकि गलनेका अर्थ पिघलना भी होता है और सड़ना या विखरना भी होता है। राज-वार्त्तिककारने शीतका वर्णन इस प्रकार किया है कि यदि वह पिघला हुआ लोहे का गोला शीत नरकोंमें डाला जाय, तो क्षणमात्र में ही एकदम जम जाता है हैं ।
* ये असुरकुमार देव तीसरे नरक तक ही जाते हैं, उससे आगे नहीं । देखो - तिलोय पण्णत्ती ०२ गा० ३२, ३३ ।
| देखो - तत्वार्थ राजबार्तिक ०३ सूत्र ३ की टीका ।