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छहढाला बीमारी आदिसे यदि किसी प्रकार बच भी गया, तो खेल-कूदमें ही लगा रहनेसे विद्याभ्याससे वंचित रह गया और खोटी संगति में फंस गया, जिससे युवावस्था आने पर कभी स्त्रियोंके भोगोंमें मस्त रहा, तो कभी जुआ खेलने, मांस खाने, चोरी करने, शिकार खेलने आदि दुर्व्यसनों में पड़कर अपना जीवन व्यर्थ कर दिया। धीरे-धीरे वृद्धावस्था आगई, और शारीरिक एवं मानसिक चिन्ताओंसे ग्रस्त हो जर्जरित हो गया, क्षीणशक्ति होकर पराधीन होगया, तब औरोंकी तो बात ही क्या है, अपने पुत्र स्त्री आदि तक उसकी अवहेलना करने लगते हैं, भर्त्सना और तिरस्कार करते हैं । जिन पुत्रों को बड़े लाड़-प्यारसे लालन-पालन किया था, वे ही धुड़कियां देकर कहने लगते हैं, चुप बैठ, तेरी बुद्धि मारी गई है, साठ वर्ष होजानेसे अक्ल सठिया गई है, आदि । इस वृद्धावस्थामें क्षीणशक्ति हो जानेसे मनुष्य चलने तकसे भी असमर्थ होजाता है, उठना-बैठना दूभरहो जाता है, अंग-अंग गल जाते हैं, शरीर में झुर्रियां पड़ जाती हैं, सिर कांपने लगता है, मुखसे लार बहने लगती है, दांत गिर जाते हैं, दृष्टि मन्द होजाती है, कान बहरे होजाते हैं, कई गूगे बन जाते हैं। ऐसी अवस्था को आचार्योंने 'अर्धमृतक सम बूढ़ापनो अर्थात् बुढ़ापा अधमरेके समान है' यह बिलकुल ठीक ही कहा है। जब मनुष्य पर्यायके तीनों पनोंकी यह दशाहै, तब ग्रन्थकार अत्यन्त दुःख प्रकट करते हुए कहते हैं, कि फिर यहजीव अपनी आत्माका यथार्थस्वरूप कैसे देख सकता है ? अर्थात् कभी नहीं। कहनेका सारांश यह