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प्रथमः सर्गः ७. सन्त: शान्तिकरा महाव्रतधरा मोक्षाथिनो निःस्पृहा
स्तत्त्वज्ञा जिनशासनोन्नतिकरा वैरझिकास्तारकाः। मानामानसमाः क्षमामृतभृता लोकप्रवाहेऽवहाः, सन्तु क्वापि तथाविधा मुनिवराः सर्वेऽपि वन्द्या मया ॥ ___ जो शान्ति करने वाले, महाव्रतधारी, मोक्षार्थी, निस्पृह, तत्त्वज्ञ, जिनशासन की प्रभावना करने वाले, विरक्त संसार-समुद्र से पार लगाने वाले, मान और अपमान में सम रहने वाले, क्षमारूपी अमृत से परिपूर्ण, लोकप्रवाह में न बहने वाले संत हैं, फिर चाहे वे कहीं भी क्यों न हों, वे मेरे लिए वन्द्य हैं, मैं उन सबको वन्दना करता हूं।
८. श्लाघ्यास्तु ते सततसज्जनराजहसाः,
सर्गात् मुधैव गुणमौक्तिकमालिनो ये । किन्तु प्रमादपददर्शनतत्परास्ते, भूयासुरत्र पिशुना बहुमाननीयाः ॥
जैसे राजहंस मोतियों को चुगते हैं, वैसे ही सज्जन पुरुष अपने स्वभाव से दूसरों के गुण-मुक्ताओं को चुगते हैं। वे सदा श्लाघनीय होते हैं। किन्तु दोष-दर्शन के लिए सदा तत्पर रहने वाले पिशुन भी बहुत माननीय हैं क्योंकि वे व्यक्ति को प्रमाद के प्रति जागरूक करते रहते हैं ।
९. सद्वर्णनैरवितथैर्मदुपक्रमोऽयं, सर्वान् सदा समनुकूलयितुं न शक्तः । चन्द्रो विकासयति रात्रिविकाशि पद्म, सूर्योऽपि वासरविकाशि कजं न चान्यत् ॥
मेरा यह प्रस्तुत उपक्रम यथार्थ और वास्तविक है, फिर भी सबको समान रूप से प्रसन्न करने में समर्थ नहीं है। जैसे चन्द्र केवल चन्द्र विकासी कमलों को ही विकसित कर पाता है और सूर्य केवल सूर्यविकासी पद्मों को ही विकसित कर पाता है, दूसरे कमलों को नहीं ।
१०. इष्टाऽऽश्रयं समधिगम्य सुरम्यमेत
दन्तःस्थितं चरितमाशु विभावयामि । व्योमावलम्बनमृते किमु चण्डरोचि:विश्वं प्रकाशयति यत्नसहस्रतोऽपि । १. सर्ग:- स्वभाव (धर्मः सर्गो निसर्गवत्-अभि० ६.१२)। २. चण्डरोचिः--सूर्य ।