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श्रीमिक्षुमहाकाव्यम्
जो विश्वव्यापी अज्ञान तिमिर का सदा नाश करती है, सत्य का प्रकाश फैलाती है, मूक को वाचाल करती है, सापेक्ष अर्थ का प्रतिपादन करती है, जो मोह आदि से वियुक्त शुद्ध करुणामय है, जो स्वयं सिद्ध है और दूसरों को सिद्धि प्रदान करती है, वह जगदीश्वरी जैनी वाणी मेरी वाणी को सारभूत - शक्तिशाली बनाए ।
४. तीर्थंकरनिरुपमैर्वरवीतराग
र्भावोपकारकुशलैः सकलागमाब्धेः । सारं सुधारसमिवोद्धतमेतमादौ, मन्त्राधिपं स्मृतिमये परमेष्ठिमन्त्रम् ॥
निरुपम, वीतराग और यथार्थ उपकार करने में कुशल तीर्थंकरों ने समस्त आगम-समुद्र का मंथन कर साररूप सुधारस की भांति जिस पंचपरमेष्ठी महामंत्र का उद्धार किया था उसका ग्रन्थ-निर्माण के प्रारम्भ में मैं स्मरण करता हूं।
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५. अर्हस्तदिज्यमुनिवर्यजिनोक्तधर्म- लोकोत्तमाग्रशरणाद्भुतमङ्गलानि । चत्वारि विस्तृतचतुर्गतिदुःखदाहे, प्रारभ्यमाणविषये हृदयं नयामि ॥
अर्हत्, सिद्ध, मुनि और केवली प्ररूपित धर्म--ये चारों ही अद्भुत मंगल हैं, लोकोत्तम हैं और श्रेष्ठ शरणभूत हैं। मैं इस विस्तृत चातुर्गतिक संसार के दुःख-दाह का अन्त करने के लिए प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रणयन की पुनीत वेला में इन चारों शरणभूत मंगलों को हृदय में स्थापित करता हूं, उनकी स्मृति करता हूं।
६. अनन्तानन्तर्यज्ज्वलदमलभानुप्रभृतिभि
न भास्यं नो शास्यं गहनगहनं प्राणिहृदयम् । सहाऽऽलोकं लोक्यं विदधति मुदा ये प्रमुदिताः, प्रणंणम्येऽतस्तान् सुगुरुचरणांश्चारुचरणान् ॥
अनन्त अनन्त सूर्य आदि प्रकाशपुञ्जों से भी प्रकाशित नहीं होने वाला तथा किसी से भी अनुशासित नहीं होने वाला जो मानव मन है, उसको आलोकित और अनुशासित करने में सद्गुरु समर्थ होते हैं। मैं शुद्ध चारित्र का पालन करने वाले उन गुरुओं के पावन चरणों में वन्दन करता हूं।