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प्रथमः सर्गः
१. श्रेय:श्रीकमलं सदैव विमलं प्रत्यह दावानलं, ज्ञानानन्त्यसमुज्ज्वलं बहुबलं सिद्धान्तसिद्धाचलम् । पूज्यैः पूजितपत्तलं प्रतिपलं संकल्पकल्पस्थलं, श्रीश्रीवीरजिनेश्वरं प्रणिदधे प्रोच्छृङ्खलं मंगलम् ॥
कल्याण रूपी लक्ष्मी के कमल, सदा विमल, विघ्न-बाधाओं के लिए दावानल, अनन्त चतुष्टयी से समुज्ज्वल, वीर्यवान्, सिद्धान्त के सुमेरु, देवों से सदा पूजित चरणवाले, संकल्प सिद्धि के लिए कल्पतरु, निर्बाध मंगलस्वरूप श्री वीर जिनेश्वर प्रभु को मैं नमस्कार करता हूं।
२. सिद्धाः सिद्धिकराः सदा सुखकराः क्षिप्तात्मकर्मोत्करा',
बुद्धा बोधिकरा विवेकनगराः सच्चिन्मयाः सर्वदा । मुक्ता मुक्तिकरा विमुक्तिशिखराः शान्ताः प्रशान्ता वरा-, स्तीस्तीर्थकरैर्नता: सुमहिताः स्तुत्या मया भक्तितः ॥
सिद्धि और शाश्वत सुख के प्रदाता, अपने समस्त कर्मों को क्षीण करने वाले, स्वयं सम्बुद्ध, दूसरों को बोधि देने वाले, विवेक से परिपूर्ण, सदा चिन्मय अवस्था में अवस्थित, स्वयं मुक्त, दूसरों को मुक्त करने वाले, विमुक्ति के शिखर पर स्थित, शांत, प्रशान्त, श्रेष्ठ, तीर्थ स्वरूप तथा तीर्थंकरों से प्रणत और स्तुत ऐसे सिद्ध भगवान् की मैं भक्तिपूर्वक स्तवना करता हूं।
३. या नित्यं प्रणिहन्ति विश्वतिमिरं यज्ज्योतिरुज्जम्भते, या मूकं वितनोति भाषणचणं यापेक्षिकं भाषते । या मोहादिवियुक्तशुद्धकरुणा सिद्धा स्वयं सिद्धिदा, सा जैनी जगदीश्वरी भगवती स्तात् सारदा शारदा ॥
१. प्रत्यूहः-विघ्न, बाधा (विघ्नेन्तरायप्रत्यूह अभि० ६।१४५) । २. सिद्धाचलम् -सुमेरुम् । ३. उत्करः-समूह । ४. भाषणचण:-वाचाल । ५. शारद:---शालीन (शालीनशारदौ --- अभि० ३।९९) ।