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बहुत हुआ था, इस समय गोलविषय के गणित से अनभिज्ञ ज्योतिषी मूर्ख माना जाता था । भास्कराचार्य ने समीक्षा करते हुए बताया है
वादी व्याकरणं विनैव विदुषां पृष्टः प्रविष्टः सभा जल्पन्नल्पमतिः स्मयापटुवटुभ्रमणवक्रोक्तिभिः । हीणः सन्नुपहासमेति गणको गोलानमिज्ञस्तथा
ज्योतिर्वित्सदसि प्रगल्भगणकप्रश्नप्रपञ्चोक्तिमिः ॥ अर्थात्-जिस प्रकार तार्किक व्याकरण ज्ञान के बिना पण्डितों की सभा में लज्जा और अपमान को प्राप्त होता है, उसी प्रकार गोलविषयक गणित के ज्ञान के अभाव में ज्योतिषी ज्योतिविदों की सभा में गोलगणित के प्रश्नों का सम्यक् उत्तर न दे सकने के कारण लज्जा और अपमान को प्राप्त करता है ।
उत्तरमध्यकाल में पृथ्वी को स्थिर और सूर्य को गतिशील स्वीकार किया गया है। भास्कर ने बताया है कि जिस प्रकार अग्नि में उष्णता, जल में शीतलता, चन्द्र में मृदुता स्वाभाविक है उसी प्रकार पृथ्वी में स्वभावतः स्थिरता है। पृथ्वी की आकर्षण-शक्ति की चर्चा भी इस समय के ज्योतिषशास्त्र में होने लग गयी थी। इस युग के ज्योतिष-साहित्य में आकर्षण-शक्ति की क्रिया को साधारणतः पतन कहा गया है, और बताया है कि पृथ्वी में आकर्षण-शक्ति है, इसलिए अन्य द्रव्य गिराये जाने से पृथ्वी पर आकर गिरते हैं। केन्द्राभिकर्षिणी और केन्द्रापसारिणी ये दो शक्तियां प्रत्येक वस्तु में मानी हुई हैं तथा यह भी स्वीकार किया गया है कि प्रत्येक पदार्थ में आकर्षणशक्ति होने से ही उपर्युक्त दोनों प्रकार की क्रियात्मक शक्तियां अपने कार्य को सुचारु रूप से करती हैं।
भास्कर ने पृथ्वी का आकार कदम्ब की तरह गोल बताया है, कदम्ब के ऊपर के भाग में केशर की तरह ग्रामादि स्थित हैं। इनका कथन है कि यदि पृथ्वी को गोल न माना जाये तो शृंगोन्नति, ग्रहयुति, ग्रहण, उदयास्त एवं छाया आदि के गणित द्वारा साधित ग्रह दृक्तुल्य सिद्ध नहीं हो सकेंगे। उदयान्तर, चरान्तर और भुजान्तर संस्कारों की व्यवस्था कर ग्रहगणित में सूक्ष्मता का प्रचार भी इन्हीं के द्वारा हुआ है।
उत्तरमध्यकाल की प्रमुख विशेषता ग्रहगणित के सभी अंगों के संशोधन की है। लम्बन, नति, आयनवलन, आक्षवलन, आयनदृकुकर्म, आक्षकर्म, भूमाविम्ब साधन, ग्रहों के स्पष्टीकरण के विभिन्न गणित और तिथ्यादि के साधन में विभिन्न प्रकार के संस्कार किये गये, जिससे गणित द्वारा साधित ग्रहों का मिलान आकाश-निरीक्षण द्वारा प्राप्त ग्रहों से हो सके।
___ इस युग की एक अन्य विशेषता यन्त्र-निर्माण की भी है। भास्कराचार्य और महेन्द्रसूरि ने अनेक यन्त्रों के निर्माण की विधि और यन्त्रों द्वारा ग्रहवेध की प्रणाली का निरूपण सुन्दर ढंग से किया है। यद्यपि इस काल के प्रारम्भ में ग्रहगणित का बहुत विकास हुआ, अनेक करण ग्रन्थ तथा सारणियाँ लिखी गयीं, पर ई. सन् की १५वीं
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भारतीय ज्योतिष
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