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हैं, तिथियों के स्वामी नन्दा, भद्रा आदि का स्वरूप तथा उनका शुभाशुभत्व विस्तारसहित बताया गया है ।
जातकतिलक की भाषा कन्नड़ है । यह ग्रन्थ भी जातकशास्त्र की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सुनने में आया है । दक्षिण भारत में इनके ग्रन्थ अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं तथा सभी व्यावहारिक कार्य इन्हीं के ग्रन्थों के आधार पर वहाँ सम्पन्न किये जाते हैं ।
श्रीधराचार्य कर्णादक प्रान्त के निवासी थे । इनकी माता का नाम अव्वोका और पिता का नाम बलदेव शर्मा था । इन्होंने बचपन में अपने पिता से ही संस्कृत और कन्नड़ साहित्य का अध्ययन किया था । प्रारम्भ में यह शैव थे, किन्तु बाद में जैनधर्मानुयायी हो गये थे । अपने समय के ज्योतिर्विदों में इनकी अच्छी ख्याति थी ।
भट्टवोसरि - इनके गुरु का नाम दामनन्दि आचार्य था । इन्होंने आयज्ञानतिलक नामक एक विस्तृत ग्रन्थ की रचना प्राकृत भाषा में की है । मूल गाथाओं की विवृति संक्षिप्त रूप से संस्कृत में स्वयं ग्रन्थकार ने लिखी है । ग्रन्थ के पुष्पिका वाक्य में " इति दिगम्बराचार्य पण्डितदामनन्दिशिष्य मट्टवोसरिविरचिते सायश्रीटीकायज्ञानतिलके कालप्रकरणम्" कहा है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल विषय और भाषा की दृष्टि से ईसवी सन् १०वीं शताब्दी मालूम पड़ता है । जिस प्रकार मल्लिषेण ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में सुग्रीवादि मुनीन्द्रों द्वारा प्रतिपादित आयज्ञान को कहा है, इसी प्रकार इन्होंने आय की अधिष्ठात्री देवी पुलिन्दिनी की स्तुति में – “सुग्रीव पूर्व मुनिसूचितमन्त्रबीजैः तेषां वचसि न कदापि मुधा भवन्ति" कहा है। इससे स्पष्ट है कि मल्लिषेण के समय के पूर्व में ही इस ग्रन्थ की रचना हुई होगी । प्रश्नशास्त्र की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसमें ध्वज, धूम, सिंह, गज, खर, श्वान, वृष और ध्वांक्ष इन आठ आयों द्वारा प्रश्नों के फल का सुन्दर वर्णन किया है ।
इस प्रधान ज्योतिर्विदों के अतिरिक्त भोजराज, ब्रह्मदेव आदि और भी दो-चार ज्योतिषी हुए हैं, जिन्होंने इस युग में ज्योतिष साहित्य की श्रीवृद्धि करने में पर्याप्त सहयोग प्रदान किया है । इस काल में ऐसे भी अनेक ज्योतिष के ग्रन्थ लिखे गये हैं जिनके रचयिताओं के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं है ।
उत्तरमध्यकाल (ई. १००१ - १६०० )
सामान्य परिचय
इस युग में ज्योतिषशास्त्र के साहित्य का बहुत विकास हुआ है । मौलिक ग्रन्थों के अतिरिक्त आलोचनात्मक ज्योतिष के अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं । भास्कराचार्य ने अपने पूर्ववर्ती आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, लल्ल आदि के सिद्धान्तों की आलोचना की और आकाशनिरीक्षण द्वारा ग्रहमान की स्थूलता ज्ञात कर उसे दूर करने के लिए बीजसंस्कार की व्यवस्था बतलायी । ईसवी सन् की १२वीं सदी में गोलविषय के गणित का प्रचार
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प्रथमाध्याय
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