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गोरोचनप्रश्न, प्रश्नाक्षरप्रश्न, शकुनप्रश्न, अक्षरप्रश्न, होराप्रश्न और लग्नप्रश्न इन आठ प्रकार के प्रश्नों का अच्छा प्रतिपादन किया है। इसके अतिरिक्त पद्मप्रभ सूरि ने वि. सं. १२९४ में भुवनदीपक नामक छोटा-सा ग्रन्थ १७० श्लोकों का बनाया है, जो प्रश्न-शास्त्र का उत्कृष्ट ग्रन्थ है । ज्ञानप्रदीपिका नाम का एक प्रश्न-ग्रन्थ भी निराला है, इसमें अनेक गूढ़ और मानसिक प्रश्नों के उत्तर देने की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। लग्न को आधार मानकर भी कई प्रश्न-ग्रन्थ लिखे गये हैं, जिनका फल प्रायः जातकग्रन्थों के मूलाधार पर स्थित है । ईसवी सन् की १५वीं और १६वीं शताब्दी में भी कुछ प्रश्न-ग्रन्थों का निर्माण हुआ है ।
रमलयह पहले ही लिखा जा चुका है कि रमल का प्रचार विदेशियों के संसर्ग से भारत में हुआ है । ईसवी सन् ११वीं और १२वीं शताब्दी की कुछ फ़ारसी भाषा में रची गयी रमल को मौलिक पुस्तकें खुदाबख्शखाँ लाइब्रेरी पटना में मौजूद हैं। इन पुस्तकों में कर्ताओं के नाम नहीं हैं । संस्कृत भाषा में रमल की पांच-सात पुस्तकें प्रधान रूप से मिलती हैं । रमलनवरत्नम् नामक ग्रन्थ में पाशा बनाने की विधि का कथन करते हुए बताया है कि
वेदतत्वोपरिकृतं रमलशास्त्रं च सूरिमिः ।
तेषां भेदाः षोडशैव न्यूनाधिक्यं न जायते ॥ अर्थात्-अग्नि, वायु, जल और पृथ्वी इन चार तत्त्वों पर विद्वानों ने रमलशास्त्र बनाया है तथा इन चार तत्त्वों के सोलह भेद कहे हैं, अतः रमल के पाशे में सोलह शकलें बतायी गयी हैं।
ई. १२४६ में सिंहासनारूढ़ होनेवाले नासिरुद्दीन के दरबार में एक रमलशास्त्र के अच्छे विद्वान् थे । जब नासिरुद्दीन की मृत्यु के बाद बलबन शासक बन बैठा था, उस समय तक वह विद्वान् उनके दरबार में रहा था। इसने फ़ारसी में रमल साहित्य का सृजन भी किया था । सन् १३१४ में सीताराम नाम के एक विद्वान् ने रमलसार नाम का एक ग्रन्थ संस्कृत में रचा था, यद्यपि इनका यह ग्रन्थ अभी तक मुद्रित हुआ मिलता नहीं है, पर इसका उल्लेख मद्रास यूनिवर्सिटी के पुस्तकालय के सूचीपत्र में है।
___ किंवदन्ती ऐसी भी है कि बहलोल लोदी के साथ भी एक अच्छा रमलशास्त्र का वेत्ता रहता था, यह मूक प्रश्नों का उत्तर देने में सिद्धहस्त बताया गया है । रमलनवरत्न के मंगलाचरण में पूर्व के रमलशास्त्रियों को नमस्कार किया गया है
नत्वा श्रीरमलाचार्यान् परमाद्यसुखामिधेः ।
उद्धृतं रमलाम्मोधेनवरत्नं सुशोमनम् ॥ अर्थात्-प्राचीन रमलाचार्यों को नमस्कार करके परमसुख नामक ग्रन्थकर्ता ने रमलशास्त्ररूपी समुद्र में से सुन्दर नवरत्न को निकाला है।
इस ग्रन्थ का रचनाकाल १७वीं शताब्दी है । अतः यह स्वयं सिद्ध है कि उत्तरमध्यकाल में रमलशास्त्र के अनेक ग्रन्थों का निर्माण हुआ है।
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