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भास्कराचार्य- वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त के बाद इनके समान प्रभावशाली, सर्वगुणसम्पन्न दूसरा ज्योतिर्विद् नहीं हुआ। इनका जन्म ईसवी सन् १९१४ में विज्जडविड नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम महेश्वर उपाध्याय था । इन्होंने एक स्थान पर लिखा है
आसीन्महेश्वर इति प्रथितः पृथिव्यामाचायंवयंपदवी विदुषां प्रपन्नः।
लब्धावबोधकलिका तत एव चक्रे तज्जेन बीजगणितं लघुमास्करेण ॥ इससे स्पष्ट है कि महेश्वर इनके पिता और गुरु दोनों ही थे। इनके द्वारा रचित लीलावती, बीजगणित, सिद्धान्तशिरोमणि, करणकुतूहल और सर्वतोभद्र ग्रन्थ हैं।
ब्रह्मगुप्त के ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त और पृथूदक स्वामी के भाष्य को मूल मानकर इन्होंने अपना सिद्धान्तशिरोमणि बनाया है; तथा आर्यभट्ट, लल्ल, ब्रह्मगुप्त आदि के मतों की समालोचना की है। शिरोमणि में अनेक नये विषय भी आये हैं, प्राचीन आचार्यों के गणितों में संशोधन कर बीजसंस्कार निर्धारित किये। इन्होंने सिद्धान्तशिरोमणि पर वासना भाष्य भी लिखा है, जिससे इनके सरल और सरस गद्य का भी परिचय मिल जाता है। ज्योतिषी होने के साथ-साथ भास्कराचार्य ऊँचे दरजे के कवि भी थे। इनकी कविताशैली अनुप्रासयुक्त है, ऋतु वर्णन में यमक और श्लेष की सुन्दर बहार दिखलाई पड़ती है। गणित में वृत्त, पृष्ठघनफल, गुणोत्तरश्रेणी, अंकपाश, करणीवर्ग, वर्गप्रकृति, योगान्तर भावना द्वारा कनिष्ठ-ज्येष्ठानयन एवं सरल कल्पना द्वारा एक और अनेक वर्ण मानायन आदि विषय इनकी विशेषता के द्योतक हैं। सिद्धान्त में भगणोपपत्ति लघुज्याप्रकार से ज्यानयन, चन्द्रकलाकर्ण-साधन, भूमानयन, सूर्यग्रहण का गणित, स्पष्ट शर द्वारा स्पष्ट क्रान्ति का साधन आदि बातें इनकी पूर्वाचार्यों की अपेक्षा नवीन हैं । इन्होंने फलित का कोई नन्थ लिखा था, पर आज वह उपलब्ध नहीं है, कुछ उद्धरण इनके नाम से मुहूर्तचिन्तामणि की पीयूषधारा टीका में मिलते हैं ।
दुर्गदेव-ये दिगम्बर जैन धर्मानुयायी थे। इनका समय ईसवी सन् १०३२ माना जाता है। ये ज्योतिष शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् थे। इन्होंने अर्धकाण्ड और रिट्ठसमुच्चय नामक दो ग्रन्थ लिखे हैं । रिट्ठसमुच्चय के अन्त में लिखा है
रइयं बहुसस्थत्थं उवजीवित्ता हु दुग्गएवेण ।
रिटुसमुच्चयसत्थं वयणेण संजमदेवस्स ॥ अर्थात्-इस शास्त्र की रचना दुर्गदेव ने अपने गुरु संयमदेव के वचनानुसार की है। ग्रन्थ में एक स्थान पर संयमदेव के गुरु संयमसेन और उनके गुरु माधवचन्द्र बताये गये हैं। दुर्गदेव ने रिट्ठसमुच्चय जैन शौरसेनी प्राकृत में २६१ गाथाओं का शकुन और शुभाशुभ निमित्तों के संकलन रूप में रचा है। इस ग्रन्थ की रचना कुम्भनगर अनंगा में की गयी है। लेखक ने रिट्ठों-रिष्टों के पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ नामक तीन भेद किये हैं। प्रथम श्रेणी में अंगुलियों का टूटना, नेत्रज्योति की हीनता,
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