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२-जिस ग्रह की महादशा हो उससे छठे या आठवें स्थान में स्थित ग्रहों की अन्तर्दशा स्थानच्युत, भयानक रोग, मृत्युतुल्य कष्ट या मृत्यु देनेवाली होती है।
३-पापग्रह की महादशा में शुभग्रह की अन्तर्दशा हो तो उस अन्तर्दशा का पहला आधा भाग कष्टदायक और आखिरी आधा भाग सुखदायक होता है ।
- ४-शुभग्रह की महादशा में शुभग्रह की अन्तर्दशा, धनागम, सम्मानवृद्धि, सुखोदय और शारीरिक सुख प्रदान करती है।
५-शुभग्रह की महादशा में पापग्रह की अन्तर्दशा हो तो अन्तर्दशा का पूर्वार्द्ध सुखदायक और उत्तरार्द्ध कष्टकारक होता है ।
६-पापग्रह की महादशा में अपने शत्रुग्रह से युक्त पापग्रह की अन्तर्दशा हो तो विपत्ति आती है।
७–शनिक्षेत्र में चन्द्रमा हो तो उसकी महादशा में सप्तमेश की महादशा परम कष्टदायक होती है।
८-शनि में चन्द्रमा और चन्द्रमा में शनि का दशाकाल आर्थिक रूप से कष्टकारक होता है।
९-बृहस्पति में शनि और शनि में बृहस्पति की दशा खराब होती है । १०-मंगल में शनि और शनि में मंगल की दशा रोगकारक होती है ।
११-शनि में सूर्य और सूर्य में शनि की दशा गुरुजनों के लिए कष्टदायक तथा अपने लिए चिन्ताकारक होती है ।
१२-राहु और केतु की दशा प्रायः अशुभ होती है, किन्तु जब राहु ३।६।११वें भाव में हो तो उसकी दशा अच्छा फल देती है। सूर्य की महादशा में सभी ग्रहों को अन्तर्दशा का फल
सूर्य में सूर्य—सूर्य उच्च का हो और ११४।५।७।९।१०वें स्थान में हो तो उसकी अन्तर्दशा में धनलाभ, राजसम्मान, विवाह, कार्यसिद्धि, रोग और यश प्राप्त होता है । यदि सूर्य द्वितीयेश या सप्तमेश हो तो अपमृत्यु भी हो सकती है।
सूर्य में चन्द्रमा-लग्न, केन्द्र और त्रिकोण में हो तो इस दशाकाल में धनवृद्धि, घर, खेत और वाहन की वृद्धि होती है। चन्द्रमा उच्च अथवा स्वक्षेत्री हो तो स्त्रीसुख, धनप्राप्ति, पुत्रलाभ और राजा से समागम होता है । क्षीण या पापग्रह से युक्त हो तो धन-धान्य का नाश, स्त्री-पुरुषों को कष्ट, भृत्यनाश, विरोध और राजविरोध होता है। ६।८।१२वें स्थान में हो तो जल से भय, मानसिक चिन्ता, बन्धन, रोग, पोड़ा, मूत्रकृच्छ और स्थानभ्रंश होता है। महादशा के स्वामी से १।४।५।७।९।१०वें भाव में हो तो सन्तोष, स्त्री-पुत्र की वृद्धि, राज्य से लाभ, विवाह, धनलाभ और सुख होता है । महादशा के स्वामी से २।८।१२वें भाव में हो तो धननाश, कष्ट, रोग और झंझट होता है।
तृतीयाध्याय
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