________________
कठिनाई से लाभ होता है। इस योग में लग्नेश तथा कार्येश की दृष्टि लग्न तथा कार्यभाव पर होना नितान्त आवश्यक है।
४. ईशराफ-मन्दगति ग्रह से शीघ्रगति ग्रह अधिक से अधिक एक अंश आगे हो तो ईशराफ योग होता है। यह योग शुभग्नह से हो तो शान्ति, सुख अन्यथा क्लेश होता है।
५. नक्त-लग्नेश तथा कार्येश में जो शीघ्रगति ग्रह हो वह थोड़े अंश पर और मन्दगति ग्रह अधिक अंश पर हो या दोनों की परस्पर दृष्टि न हो तथा अन्य कोई शीघ्रगति दोनों के मध्य में किसी अंश पर स्थित होकर अन्योन्यदृष्टि हो तो नक्त योग होता है।
६. यमय-लग्नेश, कार्येश में जो शीघ्रगति ग्रह हो वह थोड़े अंश पर और मन्दगति ग्रह अधिक अंश पर हो तथा दोनों की आपस में दृष्टि न हो और मध्यवर्ती कोई मन्दगति ग्रह दीप्तांश तुल्यांश तुल्य अन्तर से देखता हो तो यमय योग होता है ।
नक्त और यमय योग जिस वर्षकुण्डली में पड़ते हैं उस वर्षकुण्डलीवाला व्यक्ति अन्य लोगों की सहायता से अपने कार्य को सफल करता है।
७. मणऊ-लग्नेश और कार्येश में जो शीघ्रगति ग्रह हो उससे हीनाधिक अंश पर शनि या मंगल स्थित हों तथा उस शीघ्रगति ग्रह को शत्रु दृष्टि से देखते हों तो मणऊ योग होता है। इस योग के होने से व्यक्ति को जीवन-भर में हानि, अपमान आदि सहन करने पड़ते हैं ।
८. कम्बूल-लग्नेश और कार्येश का इत्थशाल या मुत्थशिल हो तथा इनमें से एक से या दोनों से चन्द्रमा इत्थशाल अथवा मुत्थशिल योग करे तो कम्बूल योग होता है । इस कम्बूल योग के उत्तम, मध्यम, अधम आदि कई भेद हैं।
उत्तमोत्तम कम्बूल-चन्द्रमा उच्च का या स्वगृह का हो और लग्नेश और कार्येश भी इसी प्रकार स्थिति में हों अथवा दोनों में से एक स्वगृही, उच्च का हो; जिससे कि चन्द्रमा इत्थशाल करता हो तो उत्तमोत्तम कम्बूल योग होता है।
मध्यमोत्तम कम्बूल योग-चन्द्रमा स्वहद्दा, स्वद्रेष्काण अथवा स्वनवांश में हो और लग्नेश, कार्येश उच्च के या स्वगृही हों तो यह मध्यमोत्तम कम्बूल योग कार्यसाधक होता है । इस योग के होने से वर्षपर्यन्त व्यक्ति के समस्त कार्य बिना विघ्न-बाधाओं के अच्छी तरह होते हैं।
उत्तम कम्बूल-चन्द्र अधिकार-रहित हो और लग्नेश, कार्येश स्वगृही या उच्च के हों तो कम्बूल योग होता है। इस योग के होने से दूसरे की प्रेरणा या दूसरे को सहायता से कार्य सिद्ध होते हैं।
अधमोत्तम कम्बूल-चन्द्र नीच या शत्रुराशि का और लग्नेश, कार्येश उच्च के या स्वगृही हों तो उत्तम कम्बूल योग होता है। इस योग के होने से असन्तोष से कार्यसिद्धि होती है। चतुर्थ अध्याय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org