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सूर्य में मंगल - उच्च और स्वक्षेत्री मंगल हो या ११४ | ५ | ७१९ | १० वें स्थान में हो तो इस दशाकाल में भूमिलाभ, धनप्राप्ति, मकान की प्राप्ति, सेनापति, पराक्रमवृद्धि, शासन सम्बन्ध और भाइयों की वृद्धि होती है । दशेश से मंगल ६ | ८ | १२वें भाव में हो या पापग्रह से युक्त हो तो धनहानि, चिन्ता, कष्ट, भाइयों से विरोध, जेल, क्रूरबुद्धि आदि बातें होती हैं ।
सूर्य में राहु - ११४/५/७ / ९ | १० वें भाव में राहु हो तो इस दशाकाल में धननाश, सर्प काटने का भय, चोरी, स्त्री-पुत्रों को कष्ट होता है । यदि राहु ३।६।१०। ११ वें स्थान में हो तो राजमान, धनलाभ, भाग्यवृद्धि, स्त्री- पुत्रों को कष्ट होता है । दशा के स्वामी से राहु ६।८।१२वें हो तो बन्धन, स्थाननाश, कारागृहवास, क्षय, अतिसार आदि रोग, सर्प या घाव का भय होता है । यदि राहु द्वितीय और सप्तम स्थानों का स्वामी हो तो अल्पमृत्यु होती है ।
सूर्य में गुरु — गुरु उच्च या स्वराशि का ११४ / ५ / ७ / ९ | १० वें स्थान में हो तो इस दशाकाल में विवाह, अधिकार प्राप्ति, बड़े पुरुषों के दर्शन, धन-धान्य-पुत्र का लाभ होता है । गुरु नौवें या दसवें भाव का स्वामी हो तो सुख मिलता है । यदि दायेशदशा के स्वामी से गुरु ६।८।१२वें स्थान में हो या नीच राशि अथवा पापग्रहों से युक्त हो तो राजकोष, स्त्री-पुत्र को कष्ट, रोग, धननाश, शरीरनाश और मानसिक चिन्ताएँ रहती हैं ।
सूर्य में शनि - १२४/५ / ७ / ९ | १० वें भाव में शनि हो तो इस दशाकाल में शत्रुनाश, कल्याण, विवाह, पुत्रलाभ, धनप्राप्ति होती है । दायेश - दशा के स्वामी से शनि ६८।१२वें भाव में नीच या पापग्रह से युक्त हो तो धननाश, पापकर्मरत, वातरोग, कलह, नाना रोग होते हैं । यदि द्वितीयेश और सप्तमेश शनि हो तो अल्पमृत्यु होती है । सूर्य में बुध - स्वराशि या उच्च राशि का बुध ११४ | ५ | ७|९|१० वें स्थान में
हो तो इस दशाकाल में उत्साह बढ़ानेवाली, सुखदायक और धन-लाभ करनेवाली दशा होती है । यदि शुभ राशि में हो तो पुत्रलाभ, विवाह, सम्मान आदि मिलते हैं । दायेश से ६।८।१२ वें भाव में हो तो पीड़ा, आर्थिक संकट और राजभय आदि होते I द्वितीयेश और सप्तमेश बुध हो तो ज्वर, अर्श रोग आदि होते हैं ।
सूर्य में केतु- - इस दशा में देहपीड़ा, धननाश, मन में व्यथा, आपसी झगड़े, राजकोप आदि बातें होती हैं । दायेश से केतु ६।८।१२वें भाव में हो तो दाँत रोग, मूत्रकृच्छ्र, स्थानभ्रंश, शत्रुपीड़ा, पिता का मरण, परदेशगमन आदि फल होते हैं । केतु ३।६।१०।११ वें भाव में हो तो सुखदायक होता है । द्वितीयेश और सप्तमेश केतु हो तो अल्पमृत्यु का योग करता है ।
सूर्य शुक्र- उच्च या मित्र के वर्ग में शुक्र हो अथवा १|४|५|७ | ९| १० स्थानों में से किसी में हो तो इस दशाकाल में सम्पत्तिलाभ, राजलाभ, यशलाभ और नाना प्रकार के सुख होते हैं । यदि दायेश से ६ ८ १२ वें स्थान में हो तो राजकोप, चित्त में
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