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३-बारहवें भाव में गुरु और चन्द्र का योग हो और बुध ३।६।१ भावों में हो तो गुदा के समीप व्रण होता है ।
४-मंगल और शनि का योग छठे या बारहवें भाव में हो और शुभग्रह न देखते हों तो गण्डमाला ( कण्ठमाला ) रोग होता है ।
५.-पापग्रह से युत या दृष्ट षष्ठेश जिस स्थान में हो उस स्थान के स्वामी की दशा में तथा उस राशि द्वारा सांकेतिक अंग में घाव जातक को होता है।
६-लग्नेश और रवि का योग ६८।१२ भावों में से किसी भाव में हो तो गलगण्ड दाहयुक्त; चन्द्रमा और लग्नेश ६।८।१२ भाव में हो तो जलोत्पन्न गलगण्ड; लग्नेश, षष्ठेश और चन्द्रमा में से कोई भी ६।८।१२ भावों में से किसी भी भाव में हो तो कफजनित गलगण्ड होता है ।
७-लग्नेश और बुध का योग ६।८।१२वें भाव में हो तो पित्तरोग; गुरु और लग्नेश का योग ६।८।१२वें भाव में हो तो वातरोगी एवं शुक्र और लग्नेश का योग ६।८।१२वें भाव में हो तो जातक क्षय रोगी होता है। यहाँ स्मरण रखने की एक बात यह है कि इन योगों पर क्रूर ग्रहों की दृष्टि का होना आवश्यक है । क्रूर ग्रह की दृष्टि के अभाव में योग पूर्ण फल नहीं देते हैं।
८-मंगल और शनि लग्नस्थान या लग्नेश को देखते हों तो श्वास, क्षय, कास रोग; कर्क राशि में बुध स्थित हो तो कास, क्षय रोग; शनि युक्त चन्द्रमा की दृष्टि मंगल पर हो तो संग्रहणी रोग; चतुर्थ स्थान में गुरु, रवि और शनि ये तीनों ग्रह स्थित हों तो हृदयरोगी एवं लाभेश छठे स्थान में स्थित हो तो अनेक रोगों से पीड़ित जातक होता है।
९-सूर्य, मंगल, शनि जिस स्थान में हों उस स्थानवाले अंग में रोग होता है तथा सूर्य, मंगल और शनि से देखा गया भाव रोगाक्रान्त होता है ।
१०-शुक्र के पापयुक्त, पापदृष्ट तथा पापराशि स्थित होने से वीर्य सम्बन्धी रोग होते हैं।
११-मंगल के पापयुक्त, पापदृष्ट तथा पापराशि स्थित होने से रक्त सम्बन्धी रोग होते हैं।
१२-बुध के पापयुक्त, पापदृष्ट तथा पापराशि स्थित होने से कुष्ट रोग होता है।
१३-सूर्य के पापयुक्त, पापदृष्ट तथा पापराशि स्थित होने से चर्मरोग होते हैं।
. १४-चन्द्रमा के पापयुक्त, पापदृष्ट तथा पापराशि स्थित होने से मानसिक रोग होते हैं ।
. १५-गुरु के पापयुक्त, पापदृष्ट तथा पापराशि स्थित होने से मृगी, अपस्मार आदि रोग होते हैं । मतिविभ्रम भी इस योग के होने से देखा गया है ।
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