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दग्ध-विष-हुताशनयोगसंज्ञाबोधकचक्र
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वार
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दग्ध
विष
१२ । ६ ७ । ८ । ९ । १० । ११ । हुताशन
नक्षत्र-कई ताराओं के समुदाय को नक्षत्र कहते हैं । आकाश-मण्डल में जो असंख्यात तारिकाओं से कहीं अश्व, शकट, सर्प, हाथ आदि के आकार बन जाते हैं, वे ही नक्षत्र कहलाते हैं। जिस प्रकार लोक-व्यवहार में एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी मीलों या कोसों में नापी जाती है, उसी प्रकार आकाश-मण्डल की दूरी नक्षत्रों से ज्ञात की जाती है। तात्पर्य यह है कि जैसे कोई पूछे कि अमुक घटना सड़क पर कहाँ घटी, तो यही उत्तर दिया जायेगा कि अमुक स्थान से इतने कोस या मोल चलने पर; उसी प्रकार अमुक ग्रह आकाश में कहाँ है, तो इस प्रश्न का भी वही उत्तर दिया जायेगा कि अमुक नक्षत्र में । समस्त आकाश-मण्डल को ज्योतिषशास्त्र ने २७ भागों में विभक्त कर प्रत्येक भाग का नाम एक-एक नक्षत्र रखा है। सूक्ष्मता से समझाने के लिए प्रत्येक नक्षत्र के भी चार भाग किये गये हैं, जो चरण कहलाते हैं। २७ नक्षत्रों के नाम निम्न हैं'-(१) अश्विनी (२) भरणी (३) कृत्तिका (४) रोहिणी (५) मृगशिरा (६) आर्द्रा (७) पुनर्वसु (८) पुष्य (९) आश्लेषा (१०) मघा (११) पूर्वाफाल्गुनी (१२) उत्तरा• फाल्गुनी (१३) हस्त (१४) चित्रा (१५) स्वाति (१६) विशाखा (१७) अनुराधा (१८) ज्येष्ठा (१९) मूल (२०) पूर्वाषाढ़ा (२१) उत्तराषाढ़ा (२२) श्रवण (२३) धनिष्ठा (२४) शतभिषा (२५) पूर्वाभाद्रपद (२६) उत्तराभाद्रपद (२७) रेवती।
अश्विनी मरणी चै कृत्तिका रोहिणी मृगः । आर्द्रा पुनर्वसू पुष्यस्तथाश्लेषा मवा ततः ॥ पूर्वाफाल्गुनिका चैव उत्तराफाल्गुनी दतः। हस्तचित्रा तथा स्वाती विशाखा तदनन्तरम् ॥ अनुराधा ततो ज्येष्ठा ततो मूलं निगद्यते । पूर्वाषाढोत्तराषाढा त्वभिजिच्छ्रवणा ततः ॥ धनिष्ठा शतताराख्यं पूर्वाभाद्रपदा ततः ।
उत्तराभाद्रपदा चैव रेवत्येतानि भानि च । ध्रुवसंशक नक्षत्र और उनमें विधेय कार्य
उत्तरात्रयरोहिण्यो मास्करश्च ध्रुवं स्थिरम् । तत्र स्थिरं बीजगेहशान्त्यारामादिसिद्धये ॥ मुहूर्तचिन्तामणि, नक्षत्रप्रकरण, श्लो. २
द्वितीयाध्याय
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