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द्वादश भाव स्पष्ट चक्र
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| ध. | सं. स. सं. सु. | सं. | पु. | सं. ! रि. सं.
७७८८९ २३ । ९ । २४ । ९ २४ । ९ २४, ९
। २३ । | २४ ।
सं. | आ. |
| २५ २४ । २३ । २२ । २१
आ. | सं. . सं. क.
१२ २३ ८ २३ | ९ २४ । ९ । २४ २५/ ३८ ५१ ५ १७, ३० । ४३ २७ ३६ । २५ ।
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२३
४ | २५
चलित चक्र अवगत करने का नियम
चलित चक्र ज्ञात करने के लिए ग्रहस्पष्ट और भावस्पष्ट के साथ तुलनात्मक विचार करना चाहिए। यदि ग्रह के राश्यादि भाव के राश्यादि के तुल्य हों तो वह ग्रह उस भाव में और उसके राश्यादि भाव सन्धि के राश्यादि के समान हों अथवा भाव के राश्यादि से आगे और भाव सन्धि के राश्यादि से पीछे हों तो भाव सन्धि में एवं आगेवाले या पीछेवाले भाव के राश्यादि के समान हों तो आगे या पीछे के भाव में ग्रह को समझना चाहिए।
चलित चक्र की जन्मपत्री में अत्यावश्यकता रहती है। चलित के बिना ग्रहों के स्थान का ठीक ज्ञान नहीं हो सकता है ।।
१, वदन्ति भावैक्यदलं हि सन्धिस्तत्र स्थितं स्यादबलो ग्रहेन्द्रः।
ऊनेषु सन्धेर्गतभावजातमागामिजं चाल्यधिकं करोति ॥ भावेशतुल्यं खलु वर्तमानो भावो हि संपूर्णफलं विधत्ते । भावोनके चाप्यधिके च खेटे त्रिराशिके नामफलं प्रकल्प्यम् ॥ भावप्रवृत्तौ हि फलप्रवृत्तिः पूर्ण फलं भावसमांशकेषु। . हासः क्रमाद्भावविरामकाले फलस्य नाशः कथितो मुनीन्द्रः॥
दो भावों के योगार्ध को सन्धि कहते हैं, सन्धि में स्थित ग्रह निर्बल होता है । ग्रह सन्धि से हीन हो तो पूर्व भाव के फल को देता है और सन्धि से अधिक हो तो आगामी भावोत्पन्न फल को उत्पन्न करता है। भावेशतुल्य वर्तमान भाव ही अपना पूर्ण फल देता है। भाव से हीन या अधिक होने से फल न्यूनाधिक होता है । ग्रहों के भाव की प्रवृत्ति से ही फल की निष्पत्ति होती है और भावेश के तुल्य ग्रह पूर्ण फल देता है। हीनाधिक होने से फल में ह्रास या वृद्धि होती जाती है ।
ताजिकनीलकण्ठी के मतानुसार दोनों सन्धियों के मध्यभाग में विद्यमान ग्रह बीचवाले भाव का फल देता है।
द्वितीयाध्याय
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