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मूलसंज्ञक नक्षत्र-ज्येष्ठा, आश्लेषा, रेवती, मूल, मघा और अश्विनी ये नक्षत्र मूलसंज्ञक हैं। इनमें यदि बालक उत्पन्न होता है तो २७ दिन के पश्चात् जब वही नक्षत्र आ जाता है तब शान्ति करायी जाती है। इन नक्षत्रों में ज्येष्ठा और मूल गण्डान्त मूलसंज्ञक तथा आश्लेषा सर्पमूलसंज्ञक हैं।
ध्रुव-चर-उग्र-मिश्र-लघु-मृदु-तीक्ष्णसंज्ञक नक्षत्र-उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद और रोहिणी ध्रुवसंज्ञक; स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा चर या चलसंज्ञक; विशाखा और कृत्तिका मिश्रसंज्ञक; हस्त, अश्विनी, पुष्य और अभिजित् क्षिप्र या लघुसंज्ञक; मृगशिरा, रेवती, चित्रा और अनुराधा मृदु या मैत्रसंज्ञक एवं मूल, ज्येष्ठा, आर्द्रा और आश्लेषा तीक्ष्ण या दारुणसंज्ञक हैं। कार्य की सिद्धि में नक्षत्रों की संज्ञाओं का फल प्राप्त होता है ।
अधोमुखसंज्ञक-मूल, आश्लेषा, विशाखा, कृत्तिका, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, भरणी और मघा अधोमुखसंज्ञक हैं। इनमें कुआँ या नींव खोदना शुभ माना जाता है।
ऊर्ध्वमुखसंज्ञक-आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा ऊर्ध्वमुखसंज्ञक है ।
तिर्यमुखसंज्ञक-अनुराधा, हस्त, स्वाति, पुनर्वसु, ज्येष्ठा और अश्विनी तिर्यङ्मुखसंज्ञक हैं।
दग्धसंज्ञक नक्षत्र--रविवार को भरणी, सोमवार को चित्रा, मंगलवार को उत्तराषाढ़ा, बुधवार को धनिष्ठा, बृहस्पतिवार को उत्तराफाल्गुनी, शुक्रवार को ज्येष्ठा एवं शनिवार को रेवती दग्धसंज्ञक हैं । इन नक्षत्रों में शुभ कार्य करना वर्जित है।
मासशून्य नक्षत्र-चैत्र में रोहिणी और अश्विनी; वैशाख में चित्रा और स्वाति; ज्येष्ठ में उत्तराषाढ़ा और पुष्य; आषाढ़ में पूर्वाफाल्गुनी और धनिष्ठा; श्रावण में उत्तराषाढ़ा और श्रवण, भाद्रपद में शतभिषा और रेवती; आश्विन में पूर्वाभाद्रपद; कार्तिक में कृत्तिका और मघा; मार्गशीर्ष में चित्रा और विशाखा; पौष में आर्द्रा, अश्विनी और हस्त; माघ में श्रवण और मूल एवं फाल्गुन के भरणी और ज्येष्ठा शून्य नक्षत्र हैं।
__योग-सूर्य और चन्द्रमा के स्पष्ट स्थानों को जोड़कर तथा कलाएँ बनाकर ८०० का भाग देने पर गत योगों की संख्या निकल आती है । शेष से यह अवगत किया जाता है कि वर्तमान योग की कितनी कलाएं बीत गयी हैं। शेष को ८०० में से घटाने पर वर्तमान योग की गम्य कलाएं आती हैं। इन गत या गम्य कलाओं को ६० से गुणा कर सूर्य और चन्द्रमा की स्पष्ट दैनिक गति के योग से भाग देने पर वर्तमान योग की गत और गम्य घटिकाएँ आती हैं। अभिप्राय यह है कि जब अश्विनी नक्षत्र के आरम्भ से सूर्य और चन्द्रमा दोनों मिलकर ८०० कलाएँ आगे चल चुकते हैं तब एक योग बीतता है, जब १६०० कलाएँ आगे चलते हैं तब दो; इसी प्रकार जब दोनों १२ राशियां -२१६०० कलाएँ अश्विनी से आगे चल चुकते हैं तब २७ योग बीतते हैं।
द्वितीयाध्याय
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